दीपक / कलश और यज्ञ शेष
दीप और धूप यज्ञ दोनों ही भारतीय देव संस्कृति के प्राण हैं। दीपक प्रज्वलन देव पूजा का एक महत्वपूर्ण आधार है। देव पूजन में उसका सुनिश्चीत स्थान होता है। मंदिरों की सुबह-शाम की आरती में उसका अनिवार्य रूप से समावेश रहता है। दीपावली इस विद्या का वार्षिकोत्सव है। प्रत्येक धर्म-कर्म में दीपक जलाया जाता है। किसी खुशी के अवसर पर, समारोह शुभारंभ पर, उद्घाटन के अवसर पर अपने उल्लास-आनन्द को दीपक के द्वारा ही प्रकट किया जाता है।
घर में नित्य घी का दीपक जलाने से ऋणावेशित आयन्स की वृद्धि होती है। दरअसल घी का दीपक जलाने से घृत में उपस्थित विशिष्ट रसायनों का ऑक्सीकरण होता है। यही ऑक्सीकरण ऋणावेशित आयन्स अथवा घर की धनात्मक ऊर्जा में वृद्धि करता है। हमारे शास्त्रों में तो दीपक की लौ की दिशा के सम्बन्ध में भी पर्याप्त निर्देश मिलता है।
पुरातन वैज्ञानिक ऋषि सिद्धान्तों को अपनाएँ, हरियाली संवद्र्धन कर इस भूमि को हरीहर, हरी-भरी, हरीमय बनाएँ।
बचा चरू दिव्य प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। आहुतियों से बचा `इदत्रमम्’ के साथ टपकाया हुआ तथा वसोधरा से बचा घी घृतआवरण के रूप में मुख, सिर तथा हृदय आदि पर लगाया व सूंघा जाता है। होमीकृत औषधियों एवं अन्य हव्य पदार्थों से संस्कारित भस्म को मस्तक तथा हृदय पर धारण किया जाता है।
हवन के अन्त में समीप रखे हुए जल पात्र में कुश, दुर्वा या पुष्प डुबो-डुबोकर गायत्री मंत्र पढ़ते हुए रोगी पर उस जप का मार्जन करें, यज्ञ की भस्म रोगी के मस्तक, हृदय, कण्ठ, पेट, नाभि तथा दोनों भुजाओं से लगाएँ। इन सरल प्रयोगों को अनेक बार प्रयोग करके देखा गया है।
वस्तुत: अग्निहोत्र से धुआँ नहीं, ऊर्जा का प्रसारण होता है। ऊर्जा युक्त वायु हल्की होती है और हल्की वायु ऊपर को उठती है और नासिका द्वारा ग्रहण की जाती है। ऊर्जा में बढ़ा हुआ तापमान होता है वह त्वचा से स्पर्श करके रोम कूप खोलता है। स्वेद निकलता है और उस स्वेद के साथ ही रक्त तथा मांसपेशियों में जमे हुए रोग, वायरस, विजातीय तत्वों का निष्कासन होता है। इससे चर्म रोग मिटते हैं और बालों तथा त्वचा की जड़ों में जो अदृश्य कृमिकीटक होते हैं, वे समाप्त होते हैं, खाज, दाद, छाजन आदि भी ठीक हो जाते हैं। अग्निहोत्र ऊर्जा के साथ जुड़ी हुई उपयोगी शक्ति से रक्त में रोगनाशक शक्ति बढ़ती है। इसे जीवनी शक्ति का अभिवर्धन भी कह सकते हैं। इस आधार पर उस मूल कारण की समाप्ति होती है, जिससे भीतरी-बाहरी अंगों में शिथिलता छाई रहती है। आलस्य, भय, घबराहट, धड़कन, अपच जैसे रोगों में अग्निहोत्र लाभदायक होता है।
रोंगो की हवन सामग्री
भारत में लोक परम्परा से संबंधित यह ज्ञान वैदिक समय (१०००-५००० बी.सी.) से देखा जा सकता है। हमारे वैदिक ग्रंथ, ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में ऐसे कई उदाहरण सामने आते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि वैदिक समय में लोगों द्वारा वनस्पतियों का उपयोग चिकित्सा के रूप में हुआ करता था। ऋग्वेद में ६७, यजुर्वेद में ८१, आयुर्वेद में ७००, अथर्ववेद में २९०, सिद्ध पद्धति में ६०० तथा यूनानी पद्धति में ७०० औषधीय प्रजातियों का वर्णन मिलता है। चरक द्वारा ४३१ प्रजातियों का वर्णन तथा सुश्रुत द्वारा ३९५ प्रजातियों का वर्णन किया गया है।
मुनक्का से नजला, खाँसी को लाभ, सिर की थकान दूर होतीहै। शहद से नेत्र ज्योति बढ़ती है तथा कण्ठ शुद्ध होता है। घृत से बुद्धि तेजी होती है। नीम के सूखे पत्तों गिलोय व चिरायता से रक्तदाााव बन्द होता है। लाल चंदन से खाँसी भागती है। शंख वृक्ष के पुष्पों से हवन करने से कुष्ठ रोग चला जाता है। अपामार्ग बीजों से हवन करने पर मिर्गी (हिस्टिरिया) रोग शान्त होता है। तुलसी मलेरिया रोग को दूर करती है। श्वेत चन्दन का तेल सुजाक तथा आतशक रोगों का विष हरण करता है।
गूगल के गन्ध से मनुष्य को आक्रोश नहीं घेरता और रोग पीड़ित नहीं करते।
अपामार्ग, वूठ, पिप्पली, पृष्ठपर्णी, लाक्षा, शृंगी, पीपल, दूब,सोम, जौ की आहुतियाँ देने से भी अनेक रोग नष्ट होते हैं। अपामार्ग तो अनुवांशिक रोगों को भी नष्ट करता है |
भाव प्रकाश और अन्य आयुर्वेद ग्रंथों में यज्ञोपचार में प्रयुक्त होने वाली औषधियों की नामावली इस प्रकार है – मंडूपर्णी, ब्राह्मी, इन्द्रायण की जड़, सतावरी, असगन्ध, विधारा, शालपर्णी, मकोय, अडूसा, गुलाब के पूल, तगर, राशना, वंशलोचन, क्षीरकॉलोनी, जटामासी, पण्डरी, गोखरू, तालमखाना, बादाम, मनुक्का, जायफल, बड़ी इलायची, बड़ी हरड़, आँवला, छोटी पीपल, जीवन्ती, पुनर्नवा, नगेन्द्रवामड़ी, चीड़का बुरादा, गिलोय, चन्दन, कपूर, केसर, अगर, गूगल, पानड़ी, मोथा, चीता, पित्तपापड़ा। ये सब औषधियाँ समभाग, इनका दसवाँ भाग शक्कर तथा आठवाँ भाग शहद डालकर गोघृत में लड्डू समान बनाकर हवन में प्रयुक्त की जाती है।
यज्ञ सामग्री / हवन सामग्री
यज्ञ में यदि कार्बन डाई ऑक्साइड असीमित गति से निकलती होती तो वहाँ पर भला किसी का बैठा रहना क्या सरल होता? किसी थोड़े स्थान पर अधिक संख्या में जनता के एकत्र होने पर दम घुटने लगता है, लोग तुरन्त वहाँ से भागने लगते हैं, किन्तु यज्ञ में ऐसा नहीं होता, प्रत्युत यज्ञ की सुरभि से जन-जन का मनमयूर प्रफुल्लित होकर नाच उठता है। यह सम्भव होता है, उस अनुपम उत्तम हवन सामग्री से, जिसको आहुतियों के रूप में अर्पित किया जाता है। यह हवन सामग्री पुष्टिकारक, सुगन्धित, मिष्ट एवं रोगनाशक वनस्पतिक पदार्थों के रेशेदार मोटे मिश्रण से बनायी जाती है, जिससे न तो सामग्री उड़कर इधर-उधर गिरती है और न श्वास के माध्यम से कोई अवरोध उत्पन्न करती है और उसका गैसीय गुण कई गुना बढ़कर वातावरण को पुष्ट, सुरभित, मधुर व आरोग्य गुणों से परिपूर्ण कर देता है। सामग्री के मोटा कूटे जाने का लाभ यह होता है कि उसमें वायु संचार होने से कृमि शीघ्र नहीं पड़ते हैं और यज्ञकुण्ड में सामग्री ठोस न होकर बिखरी रहकर अच्छी जलती है।
केसर में एक रंगद्रव्य, तेल, कोसीन नामक ग्लूकोसाइड तथा शर्करा होती है। हवन में इसका प्रयोग मस्तिष्क को बल देता है। चंदन की समिधाओं से हवन करने से वायुमण्डल शुद्ध एवं सुगंधित होता है। यह शामक, दुर्गन्धहर, दाहप्रशमन तथा रक्तशोधक होता है। हवन में इसका प्रयोग मानसिक व्यग्रता तथा दुर्बलता को दूर करने के लिए किया जाता है। ब्राह्मी का यज्ञ में प्रयोग मेधावर्धक होता है साथ ही मानसिक विकार, रक्त, श्वास, त्वचा संबंधी रोगों का निवारक होता है। इसमें मस्तिष्कीय संरचनाओं के लिए उपयोगी आजोब्रालिक एसिड होता है। सतावरी का हवन वात, पित्त विकारों को दूर करने के लिए किया जाता है। अश्वगंधा में ग्लाइकोसाइड, स्टार्च, शर्करा पायी जाती है यह बलदायक होता है। वट वृक्ष की समिधाओं का प्रयोग रक्त विकारों को मुक्त करने के लिए होता है। कपूर के धुएँ में नजलानाशक गुण होता है शक्कर का हवन हैजा, टी.बी. चेचक आदि बीमारियों को शीघ्र नष्ट करता है। गुग्गल शरीर के अन्दर के कृमियों को मारता है। इस प्रकार यज्ञ में अनेक वनोषधियों का प्रयोग अनेक बीमारियों से हमें बचाता है साथ ही वातावरण को शुद्ध एवं सुगन्धमय बनाता है।
देवीय हवन सामग्री निम्नानुसार हैं- काले तिल, चावल, जौ, शकर, कमलगट्टे, मखाने, कपूर काचरी, जावित्री, अगर-तगर, जायफल, नागर-मोथा, भोजपत्र, जटा माँसी, सूखी-बीला, छाल-छवीला, रक्त चंदन, चन्दन बूरा, गुगल, पीली सरसों, काली मिर्च, गन्ने, पालक, अनार, बिजोरा नींबू मुरा, जटामांसी, वच, कुष्ठ, शिलाजीत, दारु, हल्दी, सठी, चम्पक, मुरता, सर्वोमधी। अर्क, उपमार्ग, शमी, कुशा, खैर, दूर्वा, इलायची, शकर, मिश्री, पीपल का पत्ता, उड़द दाल, समुद्र का झाग, राई, लाजा, सहदेवी पुष्प, भांग, बरक गुंजा, कपूर, शंखपुष्पी, पान, मधु, केला, भैंसा गुगल, नीम गिलोय, जायफल, आंवला, विष्णुकांता, आम्रफल, लोंग, हरताल, कटहल, कागजी निंबू, मेनसिल, शिलाजीत, खिरणी, सिंघाड़ा, वच सुगंधित द्रव्य, अष्टांग धूप, पायस, गुलकंद शतावरी, सौंठ, अबीर, केशर, दालचीनी, काली हल्दी, कस्तूरी, वङ्कादन्ती, मोर पंखी, शिव लिंगी, आमी हल्दी, कपीठ (चूक) पटपत्र, मालकांगणी, मक्खन, अनार के फूल, फल नारंगी, नागकेशर, फूलप्रयंगु, अशोक के पुष्प या पत्र, बिल्वपत्र।
यज्ञ से वर्षा एवं कृषि वनस्पतियां
जर्मनी में वैज्ञानिकों द्वारा किए प्रयोगों से भी अब यह सिद्ध होगया है कि रोग कीटाणुओं को मारने की जितनी शक्ति इस ऊर्जा में है उतनी सरल, व्यापक और सस्ती पद्धति अभी तक नहीं खोजी जा सकी है। यज्ञ को प्राचीन काल में शारीरिक व्याधियों और मानसिक व्याधियों के शमन में सफलतापूर्वक प्रयुक्त किया जाता रहा है। आज अर्ध विक्षिप्तता-सनक, बुरी आदतें, अपराधी प्रवृत्तियाँ, उच्छृंखलता, आवेशग्रस्तता, अचिन्त्य चिन्तन, दुर्भावना जैसी मानसिक व्याधियाँ मनुष्य को कहीं अधिक दु:ख दे रही हैं और विपत्ति का कारण बन रही हैं। इसका निवारण यज्ञोपचार का सुव्यवस्थित रूप बन जाने पर भली प्रकार हो सकता है। वर्तमान यज्ञ प्रक्रिया जिस रूप में चल रही है वह भी किसी न किसी रूप में शारीरिक और मानसिक व्याधियों के समाधान में बहुत सहायक है। शारीरिक द्रष्टि से स्वस्थ तो कई व्यक्ति मिल सकते हैं परन्तु मानसिक द्रष्टि से जिन्हें संतुलित, विचारशील, सज्जन, शालीन कहा जा सके, कम ही मिलेंगे।
अन्तरिक्ष में जलीय गर्भ को धारण पोषण पुष्ट और प्रसव कराने में घृत सर्वाधिक समर्थ है। घृत के अतिरिक्त दूध, दही, आदि द्रव पदार्थ आद्र्र द्रव्य, स्नेहयुक्त हविद्रव्य, अन्नादि, वनस्पति इनका धूम मेघ निर्माण में तथा वर्षा कराने में परम सहायक हैं, यदि घृत के साथ इनका प्रयोग हो। घृत गौ का ही सर्वाधिक उपयोगी है। यदि एक सहस्र नारियल के गोलों में घृत, शक्कर, शहद, मेवा, खीर, मोहनभोग (हलुआ), मावा, तिल, जौ आदि पदार्थों को भरकर उनको यज्ञवेदी में अग्नि को अपनी वृष्टि की कामना के साथ समर्पित किया जावे और उच्च स्वर से ऊँ, स्वाहा-की सम्मिलित रूप से बार-बार ध्वनि की जावे तो वर्षा ऋतु में मेघों के होने पर उसी दिन शीघ्र ही वर्षा होगी। मेघ नहीं होंगे तो शीघ्र उत्पन्न होंगे और वर्षा भी उसी दिन १-२ दिन में होगी।
धूप, यज्ञ, हवन, कंडा : रिसर्च, कंसल्टटेंसी
हम धूप, यज्ञ, हवन सामग्री पर कार्य करते है।
धूप यज्ञ हवन मैं हमें क्या दिखता है। अनुभव क्या होता है।
किसी उल्टे पिरामिड आकार के पात्र में या हवन कुण्ड में नीचे कुछ लकड़ियां जलाई जाती है। और उनके उपर वनस्पतियो को अर्पित किया जाता है। इससे बनने वाले वातावरण को हम अनुभव करते है। इससे हमारे आस पास का वातावरण शुद्ध हो जाता है।
यज्ञ हवन करते समय नीचे जलाया क्या जाए और उपर से डाला क्या जाए। इसी विषय पर हमारे द्वारा कार्य किया जाता है।
इस क्रिया से स्वास्थ प्रद, सुगंदित, प्रगतिशील तॆज युक्त वातावरण उत्तपन्न हो हमारे आस पास के वायरस किटाणु फंगस नस्ट हो और हमारा इम्यून सिस्टम स्ट्रांग हो इस प्रकार की व्यवस्था धूप, यज्ञ, हवन से ही उचित है। इसमें उपयोग आने वाली सामग्री क्या हो, क्यों हो और उसे उपयोग कैसे किया जाये इसी विषय पर हमारे द्वारा काम किया जाता है।
उपयोग का उचित समय संधिकाल होता है , उस समय वायरस कीटाणु ज्यादा उग्र होते है , सुबह 6 से 7 एवं शाम 5 से 7 उचित संधि समय होता है।
गौरीश प्रोडक्ट
वेदो के प्राण ऊर्जा विज्ञानं पर वैज्ञानिको को अपनी और आकर्षित किया है ।
धुप यज्ञ हवं अग्निहोत्र की गैसों मई रोगाणुओं को निष्क्रिय करने की अदभुत क्षमता है ।
वायु, जल, ध्वनि, भूमि, सूर्य किरणों तथा अणु विकिरण के प्रदूषण को रोकने व् उसके दुष्प्रभावों से पीड़ित को स्वस्थ करने मे यह तकनीक जो मनुष्य के रोग के करने को उसके शरीर, मन, आत्मा और पर्यावरण से एक साथ समाप्त करके उसे इन सभी स्तरों पर स्वस्थ प्रदान करे।
वर्तमान प्रदूषित वातावरण मे अपने व् अपने परिवार का शारीरिक, मानसिक व् आध्यात्मिक स्वास्थ बनाये रखने का यह अनोखा साधन है ।
पञ्च महामुत पञ्च कमेन्द्रिया, पञ्च प्राण, पञ्च ज्ञानंदिया, तथा मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त का तारतम्य गौरीश धुप यज्ञ हवन सामग्री द्वारा प्राप्त करे। यह अनुभव प्रेम से परिपूरित अनंत आनद उल्लास तथा जीवन शक्ति से भरी जीवन दृष्टि विकसित करता है।
आज अमर्यादित उपभोग की प्रवत्ति ही वर्तमान मे मनुष्यता की सबसे बड़ी समस्या है। अमर्यादित, असभ्य, असयमित, हिंसा, द्वेष, घृणा, लोभ, कपट, से भरी उपयोग दृष्टि से वृक्ष, वन, जीवजंतु, नदी, झील, जलाशय, मिटटी, पर्वत, हवा, आकाश सबके प्रति उपभोगवाद से जनित भौतिक विकास का पागलपन हमारे जीवन मे उतर गया है ।
इस प्रदूषित मन प्रदूषित वातावरण को गौरीश धुप यज्ञ हवन सामग्री द्वारा शुद्ध करे । (remove toxic effect)
गौरीश प्रोडक्ट्स की सामग्री निम्न लिस्ट मे से ली गयी है। जिनमे औषधीय एवं प्रकृति सुगंध युक्त जड़ीबूटियों का अद्भुत संगम है।
List of Herbs
NO | Image | Sanskrit Name | Hindi Name | Latin Name | |
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1 | आकल्लकः | अकलकरा | Pellitory Root | – | |
2 | फलस्नेह | अखरोट | Juglans Regia | – | |
3 | अगस्त्य | अगिसत्या | Agati Grandiflora | ||
4 | अगुर | अगर | Aquilaria Agallocha | ||
5 | निकोचकः रेची | अकोल डेरा | Alangium Lamarckii | ||
6 | द्राक्षा मधुरसा | अंगूर | Yitis Viniferr | ||
7 | अंजनवृक्ष | अंजनी | Memedylon Ebule | ||
8 | यवनी दीप्यक | अजवायन | Carum Copticum | ||
9 | पारसिक यमानी | अजवायन खुरासानी | Hyosyamus Niger | ||
10 | काकोदुम्बरिका मञ्जुल | अंजीर | Fica Carica | ||
11 | वासक आटारुष | अडूसा | Adhatoda Vasica | ||
12 | जत्यमल्पर्णी | अत्यामल्पर्णी | VItis Camosa | ||
13 | अतिबला | अतिबला | Abutila Indicum | ||
14 | भंगुरा अतिविषा | अतीस | Aconitum Haterophylum | ||
15 | आदर्शक | अदरक | Zingiber Officinale | ||
16 | मलांद | अंतमूल | Tylophora Asthmatica | ||
17 | दाड़िम | अनार | Punica Granatum | ||
18 | उतपलसारिवा | अनन्तमूल | Hemi Desmus Ludicus | ||
19 | विष्णुक्रांता | अपराजिता | Clitoria Ternotia | ||
20 | अपामार्ग | अपामार्ग | Achyranthus Aspera | ||
21 | अहिफेन | अफीम | Opium | ||
22 | नुपद्रमः हेमपुष्प | अमलतास | Classia Fistuin | ||
23 | अगनिजार | अम्बर | Amber Gris | ||
24 | अरण्यतम्बाकू | अरण्यतम्बाकू | Verbascum Thapsus | ||
25 | अर्जक | अरण्यतुलसी | Ocimum Gratissimum | ||
26 | अग्निमन्यः | अरनी | Premna Integrifolia | ||
27 | अरलू | अरलू | Oroxylum Indicum | ||
28 | अर्जुन | अर्जुन | Terminalia Arjuna | ||
29 | अलियार | अलियार | Dodonaea Viscosa | ||
30 | अशोक | अशोक | Saraca Indica | ||
31 | असंगध | असंगध | Withania Somnnifera | ||
32 | चन्द्रसूपम | असलु | Lepidum Sativum | ||
33 | अर्क | आक | Calotropis Gigantica | ||
34 | आबनूस | आबनूस | Diospyros Ebinoster | ||
35 | आम्रहरिदा | आम्बीहल्दी | Curcuma Aromatica | ||
36 | आम | आम | Mangifera Indica | ||
37 | अम्बुज | आम्रगंधक | Limnophila Gratioloides | ||
38 | विशल्यकर्णी | आयापान | Eupatorium Ayapan | ||
39 | मत्स्यगंधा | आरार | Juniperus Cummunis | ||
40 | पंचरसा | आँवला | Phyllanthus Embelica | ||
41 | आशफल | आशफल | Nephelium Longana | ||
42 | आस | आस | Myrtus Commnuis | ||
43 | कुतजबीज | इन्द्र्जो | Holorrhana Antidysenterica | ||
44 | आत्मरक्ष | इन्द्रायण | Citrullus Colocynthis | ||
45 | श्वेतपुष्पी | इंद्रायन लाल | Trichosanthes Palmata | ||
46 | अहिगन्ध | इसरमूल | Aristolochia Indica | ||
47 | इरसा | इरसा | Iris Veris Color | ||
48 | अफीमुनस | उफ़ीमुनस | Agrimonia Eupatorium | ||
49 | कणटफलः | ऊटकटारा | Echinops Echinatus | ||
50 | प्राणप्रिया | ऋद्धि | |||
51 | महिविर | एकवीर | |||
52 | कुकुरदु ताम्रचूड़ः | ककरोंदा | Blumea Lacera | ||
53 | ककोटकी | ककोड़ा | Momordica Dioica | ||
54 | प्रियंगु | कंगुनी | Seteria Italica | ||
55 | चिरचिटा | कंगू | Lycium Barbarum | ||
56 | ज्योतिष्मती | कँगुली | Celastrus Parmicalta | ||
57 | कांचन | कचनार | Bauhinia Tancatosa | ||
58 | कर्चर | कचूर | Curcuma Zedoaria | ||
59 | वृक्ष मरीच | कञ्ज | Toddalia Aculeata | ||
60 | कुरंटक | कटसरैया | Barleria Prioniatis | ||
61 | पनस | कटहल | Artocarpus Integrfolia | ||
62 | विकंकत | कनटाई | Flacourtia Rawontchi | ||
63 | बृहति | कटेरी | Solanum Indicom | ||
64 | कंटकारी | करेरी छोटी | Solanumxanthocarpum | ||
65 | गरुड़फल | कड़वी कोठ | Hydnocarpus Wightiana | ||
66 | अमृतफला | कड़वी परवल | Trichosanthes Cucumerina | ||
67 | श्वेतकुष्मांड | कद्दू सफेद | Benincasa Cerifera | ||
68 | कदम्ब | कदम्ब | Anthocephalus Cadmaba | ||
69 | कर्णीकार | कनक चम्पा | |||
70 | करवीर | कनेर | Nerium Odorum | ||
71 | कर्पूर | कपूर | Camphora Officinarum | ||
72 | गन्धमलिका | कपूर कचरी | Hedychium Spicatum | ||
73 | कंकलकम | कबाब चीनी | Piper Cubeba Cubeba Officinalis | ||
74 | काश्मीर | कंभरी | Gmelia Arborca | ||
75 | कमरकस | कमरकस | Saivia Plebeia | ||
76 | नीलकंठ | कुरु | Gentiana Kuroo | ||
77 | करमर्दिका | करोंदी | Carissa Spinarum | ||
78 | कपोत पदी | कलंव की जड़ | Jateorhisa Palmata | ||
79 | अग्निशिखा | कलिहारी | Glorieosa Superba | ||
80 | स्थूलजिरक | क्लोजी | Nigella Sativa | ||
81 | मृगनाथ | कस्तूरी | Moschus Moschiferus | ||
82 | लता | कस्तूरी दाना | Hibiscus Abelmuoschus | ||
83 | कासमर्द | कसोदी | Cassia Occidentalis | ||
84 | कंकुष्ठ | कंकुष्ठ | Garcinia Hanburi | ||
85 | कर्कटशृंगी | काकड़सिंधी | Pistacia Integerrima | ||
86 | काकतुण्डि | काकतुंडी | Asclepias Curssaviea | ||
87 | आकरी | काकनज | Withania Congulans | ||
88 | कंकोली | कंकोली | Luvanga Scadens | ||
89 | कंगनिका | कंगनी | Setaria Italica | ||
90 | कारी | कारी | Clcrodendron Infortunatum | ||
91 | कालीनगद | तागयमनी | Artemisia Vulgaris | ||
92 | बनजीरकः | कालीजीरी | Vernonia Anthelmintica | ||
93 | कालमेघ | कालमेघ | Andrographis Paniculata | ||
94 | भृगड़ी | कीड़ामारी | Aristolochia Bactiata | ||
95 | चित्रांगी | कुटकी | Picrorrhiza Kurrooa | ||
96 | कुंकुम | केशर | Grocus Sativus | ||
97 | श्वेत खदिर | कुम्हटिया | Alpinia Galanga | ||
98 | हरीभद्रक | कूट | Saussurea Lappa | ||
99 | किल | केल | Pinus Excelsa | ||
100 | अम्लवीय | कोकम | Carcinia Indica | ||
101 | निवाली | कोट गन्धल | Ixora Parviflora | ||
102 | खतमी | खतमी | |||
103 | खपरा | धानपत्रा | |||
104 | खरैंटी | बला | Side Cordifiolia | ||
105 | मधुपिलु | खरजल | Salvadora Persica | ||
106 | हरिप्रिया | खस | Andropog on musicatus | ||
107 | लामज्जक | खावी | Andropogon Iwarancusa | ||
108 | खदिर | खैर | Acaeia Catechu | ||
109 | नागबला | गंगेरन | Side Spinosa | ||
110 | गज पीपल | चव्यफल | Scindepus Officianelis | ||
111 | कूत्रण | गंजनी | Andropogon Nardus | ||
112 | प्रसारिणी | गन्ध प्रसारिणी | Paedria Foetida | ||
113 | गोरिबीज | गन्धक | Sulpher | ||
114 | हेमन्तहरित | गन्धपूर्ण | Gaultheria Fragrantissima | ||
115 | गरब | गरब | |||
116 | अजय | गांजा व् भांग | Cannabis Sativa | ||
117 | गुडुची | गिलोय | Tinospora Cordifolia | ||
118 | जवा | गुड़हल | Hibiscus Rosasinensis | ||
119 | अजगन्धिनी | गुड़ मार | Gymnema Sylvestris | ||
120 | गुग्गुल | गूगल | Balsamodendron Mukul | ||
121 | गूगल धुप | गूगल धुप | Ailanthus Malbarica | ||
122 | बिन्दुफल | गुंथी | Cordia Rothi | ||
123 | द्रोणपुष्पी | गुमा | Leucas Cephalotus | ||
124 | जन्तुफल | गूलर | Ficus Glomerata | ||
125 | बहुकंटका | गोखगु छोटा | Tribuls Terrestris | ||
126 | गोक्षुर | गोखगु बड़ा | Pedalium Murex | ||
127 | चित्रला | गोरख इमली | Adansonia Digitara | ||
128 | अरुणा | गोरखमुण्डी | Spheranthus Indicus | ||
129 | जीवंती | गोल | Trema Orientalis | ||
130 | गोरोचन | गोरोचन | Bostanrus | ||
131 | कचना | चम्पा | Michelia Champaca | ||
132 | पीला चम्पा | चम्पा पीला | Michelia Nilagirica | ||
133 | राजपुत्री | चमेली | Jasminum Grandifloram | ||
134 | अश्वकर्ण | चन्दरस | Vateria Indica | ||
135 | छविका | चव्य | Piper Chaba | ||
136 | चवरी | चापरा | Myesine Africana | ||
137 | कुष्ठबैरी | चाल मोगरा | Taractongenos Kursii | ||
138 | चिरतिक्ता | चिरायता | Swertia Chirata | ||
139 | चिरायता पहाड़ी | चिरायता मीठा | Swertia Augusfufolia | ||
140 | बड़ा चिरायता | चिरायता बड़ा | Exacum Bicolor | ||
141 | झिरपट | चिरियारी | Triumfetta Rotundifolia | ||
142 | प्रियाल | चिरोंजी | Buchanania Latifolia | ||
143 | सप्तचक्रा | चिल्ला | Casearia Esculenta | ||
144 | भद्रदारू | चीड़ | Piinus Longifolia | ||
145 | अमृतोपहिता | चिबचीनी | Smilax China | ||
146 | लोहकष्ठ | चौबे हयात | Guaiacom Oficinalis | ||
147 | पाताल गरुडी | चिरेटा | Cocculus Villous | ||
148 | शमी | छोंकर | Spunge Tree | ||
149 | अर्क पुष्पी | छिरवेल | Holostemma Rheedii | ||
150 | सप्तपर्ण | छतिवन | Dita Bark | ||
151 | चन्दन | छोटा चाँद | Rauwolfia Serpentina | ||
152 | हेमसागर | जरुमेहयात | Bryophyllum Calycinum | ||
153 | जंगली बादाम | जंगली बादाम | Sterculia Foetide | ||
154 | जंगली अखरोट | जंगली अखरोट | Acurites Moluceana | ||
155 | अरण्य सुरण | जंगली सुरण | Amorphophallus | ||
156 | बन हरिद्रा | जगली हल्दी | Curcuma Aroatica | ||
157 | कामुक | जगली जायफल | Myristica Malabarica | ||
158 | जटामांसी | जटामांसी | Narbostachys Jatamansi | ||
159 | निविर्षाः | जदवार | Delphinium Denudetum | ||
160 | जमराशि | जमरासी | Elaeodendron Glaucum | ||
161 | बहुकन्द | जमीकन्द | Amorphophallus Campanlatus | ||
162 | जरायुप्रिया | जरायुप्रिया | Erigeron Canadensis | ||
163 | वैकुण्ड | चौधारा | Malabar Catumind | ||
164 | शेलाख्य | छरीला | Parmelia Perforata | ||
165 | जलकेशर | जलकेशर | |||
166 | शार्दी | जल पिप्पली | Lippia Nodiflora | ||
167 | अधिकंटक | जवासा | Alhagi Mawrorum | ||
168 | यास सर्करा तुरंजबीना | यास सर्करा तुरंजबीना | |||
169 | जायफल | जातीफल | Myristica Fragrans | ||
170 | जायपत्री | जातीपत्री | The Aril Myristica Fragrans | ||
171 | जैतून | जैतून | Olea Europea | ||
172 | यव | जौ | Hordecum Vnlgar | ||
173 | पुत्रजीवा | जियापोता | Putranjiva Roxburghii | ||
174 | जिंगनी | जिंगन | Odina Wodeir | ||
175 | मत्कुणारी | जिऊंती | Cimicifuga Felida | ||
176 | जीवति | जीवन्ति | Sarcostemmma Breistigma | ||
177 | जीवन्ति | जीवति | Dosmotrichum Fimbriatum | ||
178 | यूथिका | जूही | Jasminum Aurilculatum | ||
179 | भूबदरी | झड़बेर | Zizyphus Nummularia | ||
180 | झाऊका | झाऊ | Tamarix Gallica | ||
181 | अश्मन्तकः | झिंझोरी | Bauhinia Racemosa | ||
182 | नदिहिंगु | डिकामारी | Gaadenia Cummifera | ||
183 | घंटाबीणा | डिजिटेलिस | Digitalis Purpuria | ||
184 | पलाश | ढाक | Butea Frondosa | ||
185 | नत | तगर | Valeriana Waliehii | ||
186 | तज | तज़ | Cinnamomum Cassia | ||
187 | आवर्तकी | तरवड़ | Cassia Auriculata | ||
188 | यवज | तवखीर | Curcuma Angustifolia | ||
189 | नागवल्ली | ताम्बूल | Piper Betel | ||
190 | कोकिलाष | तालमखाना | Asteracantha Longifolia | ||
191 | तालीसपत्र | तालीसपत्र | Taxas Baccatta | ||
192 | सूभद्राणी | त्रायमाण | Delphinium Zaleri | ||
193 | अतिमुक्तक | तिन्दु | Diospyres Embryopteris | ||
194 | अक्षका | तिनिश | Ougenia Oobjeinensis | ||
195 | तिल | तिल | Sesamum Indicum | ||
196 | तिलक | तिलक | |||
197 | तुलसी | तुलसी | Ocumum Sanctum | ||
198 | अजगन्धिका | तुलसी बुबई | Ocumum Basilicum | ||
199 | अर्जका | तलसी उजर्की | Ocimum Canum | ||
200 | तुंबरू | तुंबरू | Zenthoxylum | ||
201 | यवास | तुरंजबीन | |||
202 | तृननक | तुन | Cedrela Toona | ||
203 | तेजस्विनी | तेजबल | Zanthoxylum Hostile | ||
204 | तमालतत्रा | तेजपात | Cinnamomum Tamala | ||
205 | टेलीकंद | तेलिया कन्द | |||
206 | तोदरी सुर्ख | तोदरी सुर्ख | Cheiranthus Cheiri | ||
207 | बहुदुग्धिका | थूहर नागफनी | Opuntia Dilenaii | ||
208 | ददूधन | दाद मर्दन | Cassia Alata | ||
209 | दारूनिशा | दारू हल्दी | Berberis Aristata | ||
210 | दारूहल्दी का फल | दारूहल्दी का फल | |||
211 | वल्लीहरिद | दारूहल्दी मलाबारी | Coscinium Fenestrutum | ||
212 | बहुगन्धा | दालचीनी | Cinnamomu Zyeylanicum | ||
213 | दूधिया लता | दूधिया लता | Oxystelma Esculeutum | ||
214 | कृष्णसारिवा | दूधीकाली | Ichnocarpus Frutescens | ||
215 | बहुवीर्य | दुब | Cynodon Dactylon | ||
216 | देवकाषठ | देवदारु | Pinus Deodara | ||
217 | अग्निदमनक | दौना | Artemisia Sieuersiana | ||
218 | सुवर्णक्षीरी | धतूरा पीला | Argemone Mexicana | ||
219 | पद्दमुखी | घमासा | Fagonia Arabica | ||
220 | धव | धव | Anogeissus Latifolia | ||
221 | अग्निज्वाला | धाय | Woodfordia Floribunda | ||
222 | कचछरूहा | नागरमोथा | Cyprus Scarious | ||
223 | नागदमी | नागदमनी | Crinum Asiaticum | ||
224 | भुजागाखय | नागकेसर | Mesua Ferrea | ||
225 | नारिकेल | नारियल | Cocos Nucifera | ||
226 | कटकम | निर्मली | Strychnos Potatorum | ||
227 | इन्द्राणी | निर्गुण्डी इन्द्राणी | Vitex Negundo | ||
228 | निमुर्डी | निमुर्डी | Blumea Eriantha | ||
229 | निविर्षि | निविर्षि | Kyllingia Trileps | ||
230 | निम्ब | नीम | Azadirachta Indiacat | ||
231 | केडये | नीम मीठा | Murraya Koenigii | ||
232 | अमलकेशर | नीबू बिजोरा | Citrus Midica | ||
233 | नीलोफर | नीलोफर | |||
234 | नील निर्गुण्डी | नील निर्गुण्डी | Jysticia Gendarussa | ||
235 | नील चम्पक | नील चम्पक | Artabotrays Odoratissimus | ||
236 | निसोमली | निसोमली | Polygonum Aviculare | ||
237 | नुल | नुल | Chukrasis Tabularis | ||
238 | नुका चीनी | नुकाचीनी | Stemodia Viscosa | ||
239 | बाला सुगंधवाला | नेत्रवाला | Pavonia Odorata | ||
240 | पदमाक | पदमाक | Prunus Puddum | ||
241 | भार्यापृक्ष | पतंग | Caesalponia Sappan | ||
242 | यवास | तुरंजबीन | |||
243 | पर्वती | पर्वती | Cocculus Pendulus | ||
244 | नागतुम्बी | पाताल तुम्बी | Bovista Spisis | ||
245 | पाटला | पाडल | Stroeospermum Tetrangonum | ||
246 | अलिप्रिया | पाडर | Steleopermum Suabeolens | ||
247 | पाषाणभेदी | पाखाण भेद | |||
248 | पाची | पानडी | |||
249 | फणीजजक | पांगला | Pogostamon Parvilorus | ||
250 | परिभद्र | पांगरा | Erythrina Indica | ||
251 | चारुदर्शिनी | पाकर | Ficus Iacor | ||
252 | गोलिमिका | पाथरी | Launaea | ||
253 | पर्पटी | पापरी | Lxora Paniculata | ||
254 | प्रचीनामलक | पानी आँवला | Elacourtia Cataphracta | ||
255 | पंज कश्त | पंज कश्त | |||
256 | राजारानी | पजमुन्नी पाला | Alstonia Venenatus | ||
257 | परजम्ब | परजम्ब | Olea Diocia | ||
258 | बहूप्रजा | जुली | Phyllanthus Reticulatus | ||
259 | नन्दीवृक्ष | प्ररोही | Tabernaemotana Coronaria | ||
260 | प्लक्ष | पाकरि | Ficus Tiseila | ||
261 | इन्द्राणीका | पानी की संभालु | Vitex Trifolia | ||
262 | कंदराल | पारस पीपल | Thespesia Populcea | ||
263 | प्रजापत | परिजात | Nyctanthes Arbortristis | ||
264 | पारु | पारु | Allium Porrum | ||
265 | पिंडीतक | पिंडालू | Randia Ulignosa | ||
266 | प्रियंगु | प्रियंगु | Agalia Odoratissima | ||
267 | पिंडार | पिंडार | Trewia Nudiflora | ||
268 | पीतक | पियारङ्ग | Thalictrum Poliologum | ||
269 | पृशिनपर्णी | पिठवन | Uraria Lagopoides | ||
270 | चित्रपर्णी | पिठवन | Uraria Picta | ||
271 | पर्पट | पित्तपापड़ा | Fumaria Parviflora | ||
272 | पिलो | पिलिआगियो | Cistanche Tubulaosal | ||
273 | धानी | पीलू | Salvadora Oleoides | ||
274 | सुवर्ण कर्पास | पिली कपास | Cochlospermum Gossypium | ||
275 | अश्वतथ | पीपल | Ficus Religiosa | ||
276 | पिप्पली | पीपर | Piper | ||
277 | पुङ्गमथेङ्ग | पुङ्गमथेङ्ग | Blumea Densiflora | ||
278 | श्रीपुष्प | पुण्डरीक | |||
279 | पुत्रदन्ती | पुत्रदन्ती | |||
280 | पुन्नाग | पुन्नाग | Calophyllum Inoghyllum | ||
281 | पुनर्नवा | पुनर्नवा | Boerhevia Diffusa | ||
282 | पुलीचन | पुलीचन | Uvaria Narum | ||
283 | पेनालीवल्ली | पेनालीवल्ली | |||
284 | कानकखीर | पेरु | Plumieria Alba | ||
285 | पुष्करमूल | पोकर मूल | Costus Speciosus | ||
286 | पोटवेट | पोटवेट | Pothos Candens | ||
287 | पोदीना पहाड़ी | पहाड़ी पोदीना | Mentha Varidis | ||
288 | उपोदिका | पोई | Basella Rubra | ||
289 | फंजीयुन | फंजीयुन | Tussilago Farfara | ||
290 | फंजीका | फांड | Rivea Ornata | ||
291 | बड़ | बड़ | Ficus Bengalensis | ||
292 | नीलपुष्प | बनफशा | Viola | ||
293 | बची | बच | Acoras Clammus | ||
294 | विभीतक | बहेड़ा | Terminalia Belerica | ||
295 | स्वर्ण | बंदा | Viscum Album | ||
296 | बांदा | बंदा | Loranthus Longiflorus | ||
297 | बादाम | बादाम | Prunus Amygdalus | ||
298 | भूलवंग | बनलोंग | Jussieua Suffruticosa | ||
299 | बादाम बर्बटी | बादाम बर्बटी | Canarium Commune | ||
300 | बसन्ती | बसन्ती | |||
301 | वंशलोचन | वंशलोचन | Bambuna Arundinacea | ||
302 | भ्रंगराज | भांगरा | Eclipta Prostrata | ||
303 | अंगारवललरी | भारंगी | Clerodandron Serratum | ||
304 | काकमाची | मकोय | Solanum Nigrum | ||
305 | पदम् | मखाना | Euryale Ferox | ||
306 | समंगा | मजीठ | Rubia Cordifolia | ||
307 | मधु | मधु | Mel | ||
308 | रक्तरोहिड़ा | रोहिता | Shorea Robusta | ||
309 | नाकुनि | रासना | Vanda Roxburghii | ||
310 | महाभीतिका | लजालू | Mimosa Pudica | ||
311 | लक्ष्मणा | लक्ष्मणा | Ipomaea Sepiaria | ||
312 | शैलू | लसोड़ा छोटा | Cordia Obliqus | ||
313 | वनमल्लिका | वनमल्लिका | Jasminum Rotlerianum | ||
314 | शतावरी | शतावरी | A. Sarmentosus | ||
315 | ब्रम्हकाष्ठ | शहतुत | Morus Indica | ||
316 | शालपर्णी | शालपर्णी | Desmodium Gangeticum | ||
317 | ईश्वरी | शिवलिंगा | Bryonia Iaciniosa | ||
318 | यवतिक्ता | संखिनी | Ganscora | ||
319 | समुद्रयूथिका | संगकुप्पी | Clerodendron Inerme | ||
320 | हलियुन | हलियुन | Asparagus Officinalis | ||
321 | हरीतकी | हरड़ | Terminalis Chebula | ||
322 | हरिद्रा | हल्दी | Curcuma Longa | ||
323 | हंसराज | हंसराज | Adantium Capallis | ||
324 | हिंगु | हींग | Ferulo Narthex | ||
325 | बोल | हिरबोल | Balsamodendron Myrrha | ||
326 | क्षीरकाकोली | क्षीरकाकोली |
यज्ञ विज्ञान
संन्यासाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व उसका यज्ञोपवीत उतार लिया जाता है जो यह दर्शाता है कि भविष्य में वह संन्यासी सब प्रकार के कर्मकाण्डों से मुक्त है| संन्यासी का मुख्य कर्तव्य है कि वह समाज के सभी वर्गों में नियमितरुप से वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार करता रहे तथा किसी भी प्रकार की राजनीति में न पड़े| एक सच्चा संन्यासी वैसे भी भौतिक सुख-सुविधाओं को त्याग कर ही संन्यासी बनता है| अतः वह धार्मिक क्षेत्र में ही अपना अमूल्य जीवन बिताने की प्रतिज्ञा लेता है| वह सांसारिक प्रपंचों से मुक्त हो जाता है| संक्षेप में एक संन्यासी तीनों ऐषणाओं से ऊपर होता है| एक संन्यासी को भौतिक नश्वर वस्तुओं में राग (आकर्षण) नहीं होता क्योंकि उसका बस एक ही लक्ष्य होता है मुक्ति प्राप्त करना, ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द प्राप्त करना|
शतपथब्राह्मण में लिखा है-ब्रह्मा, होता, अर्ध्वयु तथा उद्गाता पश्चिम (भौतिक संसार) की ओर चलते है अर्थात् संन्यासी पूर्व (अभौतिक मोक्ष) की ओर चलता है अर्थात् संन्यासी का मार्ग दूसरों से भिन्न होता है| संसारी लोग भौतिक वस्तुओं की ओर भागते हैं परन्तु एक सच्चा संन्यासी पारलौकिक आनन्द की खोज में रहता है| यहाँ स्पष्ट है की संन्यासी और अन्य लोगों के कर्तव्य/उद्धेश्य भिन्न-भिन्न होते हैं| कात्यायनसूत्र (१.२.४) में लिखा है ‘सर्वेंषा-यज्ञोपवीत्योदकाचमते नित्येकर्मोपयाताम्’ अर्थात् यज्ञ के ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु और उद्गाता इत्यादि को अनिवार्यरूप से यज्ञ प्रारम्भ से पूर्व यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और तीन ‘आचमन’ (जल के तीन बार घूँट पीने की क्रिया) करनी चाहिये| ‘ यज्ञ के ब्रह्मा के लिये यज्ञाग्नि में अपनी आहुति प्रदान करने का विधान है’(गोपथब्राह्मण)| बलिवैश्वदेव-यज्ञ की १६ आहुतियाँ होती हैं, उनमें से 10 आहुतियाँ चूल्हे से अग्नि अलग धर के उसमें बलिवैश्वदेव-यज्ञ किया जावे| शेष ६ भाग किसी दुःखी बुभुक्षित प्राणी अथवा कुत्ते आदि को दे देवें| (स. प्र.) यहाँ कुत्ता, कौवा, चींटी आदि प्रतीक मात्र हैं, वास्तव में परमात्मा के बनाये समस्त प्राणी किसी न किसी रूप में मनुष्यों के लिये हितकारी होते हैं| अतः जहाँ तक हो सके उनकी रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य है और उनकी बिना कारण हिंसा करना पाप है| “कुत्तों, कंगालों, कुष्टी आदि रोगियों, काक आदि पक्षियों और चींटी आदि कृमियों के लिये छः भाग अलग-अलग बाँट के दे देना और उनकी प्रसन्नता करना| अर्थात् सब प्राणियों को मनुष्य से सुख होना चाहिये|” वर्तमान में भारत में ही नहीं, विदेशों में भी ‘महायज्ञ’ के नाम से अनेक यज्ञों का आयोजन पूर्ण श्रध्दा और प्रेम से किया जाता है| निश्चित रूप से यह एक शुभ संकेत है कि इस पृथ्वी पर रहने वाले अधिक से अधिक लोग वैदिक धर्म (मानव-धर्म) और वैदिक सिध्दान्तों की ओर आकर्षित होकर अपना रहे हैं| धार्मिक सज्जन अवश्य जान लें कि वैदिक मान्यतानुसार महायज्ञ पाँच ही होते हैं| यज्ञ के तीन प्रधान अंग हैं संकल्प, मन्त्र और आहुति| संकल्प के बिना यज्ञ नहीं हो सकता, मंत्रोच्चारण बिना यज्ञ नहीं हो सकता और यज्ञाग्नि में आहुतियाँ प्रदान किये बिना भी यज्ञ (हवन/अग्निहोत्र) पूर्ण नहीं हो सकता| इन तीनों का समन्वित कार्य ही यज्ञ कहाता है| यजमान का आसन यज्ञकुंड के पश्चिम (मुख पूर्व) में होता है और उसकी धर्मपत्नी उसके दाहिनी ओर बैठती है| यजमान को ‘याजक’ और उसकी धर्मपत्नी को ‘यज्वा’ कहते हैं| वर्तमान में हम देखते हैं कि यज्ञकुंड के चारों ओर यग्यप्रेमी दम्पति बैठते हैं वे अतिथि या दर्शक होते हैं, यजमान नहीं| रही बात चारों कोनों में बैठे बारी-बारी से आहुतियाँ देने की, तो यह अवैदिक है| यज्ञाग्नि में गोघृत तथा सामग्री (विभिन्न प्रकार के सुगन्धित पदार्थ तथा औषध गुणों से भरपूर जड़ी-बूटियों का मिश्रण) की आहुतियों से निकलने वाली सूक्ष्म गंध वायु को शुध्द करती है और यह वायु देश-विदेश में जाकर सब प्राणधारी (जीवों) को स्वास्थ्य लाभ पहुँचाती है|
यह सर्वश्रेष्ट परोपकारी कार्य है क्योंकि इससे अपने हों या पराये, मित्र हों या शत्रु सबको लाभ पहुँचता है| सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग दूर होते है| यज्ञाग्नि से उठने वाले धुएँ से पेड़-पौधों तथा वृक्षों में भरपूर खुराक मिलती है| यज्ञाग्नि में आहूत पदार्थ (घृत और सामग्री) सूक्ष्म होकर वायु द्वारा आकाश में भेदन शक्ति उत्पन्न करके वर्षा करते हैं और वही पदार्थ वर्षा के जल द्वारा भूमि को प्राप्त होते हैं, जिससे फसल (उपज) अधिक और पौष्टिक होती है| यज्ञ से यजमान तथा यज्ञ में भाग लेने वाले अतिथियों के मन में नकारात्मक विचार समाप्त होते हैं तथा उनमें सकारात्मक विचार उत्पन्न होने लगते हैं| यजमान का आसन यजमान के लिये सुरक्षित होता है और उसके दाहिनी ओर उसकी धर्मपत्नी बैठती है और यदि यजमान उसका (पुरुष या स्त्री) अकेला/अकेली है तो उसके साथ में उसका भाई, मित्र या रिश्तेदार बैठ सकता है| स्मरण रहे कि पुरुष के दाहिनी ओर केवल उसकी धर्मपत्नी ही बैठ सकती है, अन्य कोई स्त्री (बहन, भाभी, माँ) नहीं|अन्य आसनों पर भी ऐसा ही समझना चाहिये| बहन, भाभी या अन्य कोई को पुरुष के बाईं ओर ही बैठना उचित है, ऐसा आर्ष ग्रंथों में वर्णित है| वैदिक संस्कारो में ऐसा ही विधान है| जो बात सत्य (वेदोक्त) है उसको वैसा जानना,मानना और व्यवहार में लाना ही सही मायनों में सत्य कहता है| कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो स्वाध्याय नहीं करते और केवल ‘अहम्’ को प्रसन्न करने हेतु या दूसरों पर जमाने हेतु आर्ष ग्रंथों की प्रामाणिक बातों को नहीं मानते और बेतुके तर्क और छल से अपनी बात को ही ठीक समझते हैं, ऐसे लोग स्वयं तो डूबते ही हैं दूसरों को भी अज्ञानता की गहरी खाई में धकेलते हैं| यह घोर अपराध है| यह अहंकार/अभिमान/स्वार्थ का प्रतिक है तथा लोकैषणा को दर्शाता है| समय पर पधारने वाले अतिथियों का सम्मान अवश्य करना चाहिये| यज्ञ की विधि प्रारम्भ होने के पश्चात् आने वाले व्यक्ति को भी योग्य है कि वह चुप-चाप आकर शान्ति से जहाँ रिक्त स्थान दिखाई दे वहाँ बैठ जाए| किसी को इशारे से भी नमस्ते न करे| जिसे हम परोपकार की भावना से यज्ञ में शामिल हुए हैं, दत्तचित्त होकर अपना पूरा ध्यान उसी में लगाएँ| याद रहे की मन एक समय में केवल एक ही काम करता है और वह अत्यन्त चंचल होने के कारण बहुत विचलित हो जाता है तथा दोबारा नियन्त्रित करना कठिन होता है|
हमें अपने अतिथियों से या सगे-संबंधियों से मिलने के अनेक अवसर मिलते हैं, यज्ञ के बीच में उनको नमस्ते करना या मुस्कराहट देना, इससे यह प्रतीत होता है कि आप यज्ञ वेदी पर मात्र दिखावे के लिये बैठे हैं| अथर्ववेद (१.7.६ से मन्त्र सं० 19 तक) में अनेक यज्ञों का वर्णन आया है और चारों वेदों के २०३७६ मंत्रों में से एक भी ऐसा मंत्र नहीं है जिससे बहुकुंडीय यज्ञ करने का विधान प्रमाणित होता हो| वैदिक धर्म (मिमान्सादर्शन के अनुसार) में पाँच प्रकार की अग्नियों का वर्णन आया है| १. गार्हपत्य, २. आहवनीय, ३. दक्षिण (श्रौत अग्नियाँ), ४. सभ्या और ५. वसथ्य| श्रौत यज्ञ में पाँच अग्नियों के पाँच यज्ञकुंड होते हैं परन्तु इनमें भी मुख्य आहवनीय कुण्ड एक ही होता है जिसमें आहुतियाँ दी जाती है शेष चार कुण्ड यज्ञादि कर्मकांड पूर्ण करने के लिये होते हैं| लोगो ने इसे बहुकुंडीय यज्ञ समझ लिया है जो अवैदिक, अवैज्ञानिक, अशास्त्रीय तथा एक प्रकार का पाखण्ड है जो मात्र स्वार्थपूर्ति का एक जरिया है| बहुकुंडीय यज्ञो का समर्थन करना अशिक्षा, अस्वाध्याय तथा ऐषणाओ में लिप्तता का परिणाम है| किसी विशेष अवसर पर यज्ञ के मुख्य यजमानों की संख्या बहुत अधिक है और सब यजमान बनना चाहते है तो ऐसी परिस्थति में बहु-कुण्डीय यज्ञ का आयोजन करने-कराने में कोई त्रुटी न हो परन्तु ऐसा सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि ब्रह्मा एक और यजमान अनेक| एक ब्रह्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकता जो सब ओर ध्यान दे पावे| अतः यज्ञ में गलती होने से लाभ के स्थान पर हानि ही होती है| यज्ञ के ब्रह्मा को पूरा उत्तरदायित्व निभाना पड़ेगा कि यज्ञकर्म में किसी भी यजमान से यज्ञ के अंतर्गत कोई त्रुटी न हो और यह एक ब्रह्मा के लिये सम्भव नहीं है| देश-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखकर यदि बहुकुंडीय यज्ञो का आयोजन करना पड़े तो सब कुंडों के पास सुशिक्षित यज्ञ मार्गदर्शक उपस्थित होने चाहियें, जो समय-समय पर नये आमंत्रित यजमानों को ठीक तरह से यज्ञ की विधियाँ समझा सकें, जिससे नये यजमानों की यज्ञ के प्रति आस्था बनी रहे और यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हो सके परन्तु सर्वविदित प्रत्यक्ष प्रमाण है कि ऐसा होना सम्भव नहीं है| मैंने ऐसे अनेक यज्ञो में भाग लिया है और खेद के साथ लिखना/कहना पड़ता है कि इस प्रकार के बहुकुंडीय यज्ञों में अनेक बार धुआँ होता है, सब यज्ञकुण्डों पर घी तथा सामग्री की व्यवस्था में विलम्ब होता है और यज्ञ प्रक्रिया को अनेक बार कुछ समय इतना होने के बाद भी घोषणा की जाती है कि ‘ईश्वर की असीम कृपा से यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ|’ यज्ञ के ब्रह्मा के द्वारा यह सरासर अधर्म है|
यज्ञ करना सर्वश्रेष्ट केम और धर्म है परन्तु जिस बात की चर्चा (बहुकुंडीय यज्ञो की चर्चा) यदि हमारे आर्ष ग्रंथों में नहीं है तो हमें उस वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिये| जिन लोगो को बहुकुंडीय यज्ञ करना अच्छा लगता है, क्योंकि उससे उनकी प्रसिध्दि होती है तथा ब्रह्मा को भी अधिक मात्र में दान-दक्षिणा मिलती है तो कोई क्या कर सकता है! आजकल लोगो का झुकाव धर्म से अधिक धन की ओर बढ़ रहा है क्योंकि उन्हें लक्ष्य नहीं लक्ष्मी चाहिये| अपनी-अपनी समझ है| वैदिक यज्ञ में बहुकुंडीय यज्ञ नहीं होता और जहाँ होता है वहाँ अवैदिक एवं गलत ढंग से होता है| हमारे ऋषियों ने कहीं भी बहुकुंडीय यज्ञो का विधान नहीं बताया है| अतः बहुकुंडीय यज्ञों का निषेध करना चाहिये| सत्य के साथ कभी समझौता नहीं करना चाहिये| बहुकुंडीय यज्ञ हर द्रष्टिकोण से अवैदिक एवं अवैज्ञानिक है अतः उसका बहिष्कार अवश्य करना चाहिये| यज्ञकर्म की परिधि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ तक ही सीमित है अर्थात् सन्यासाश्रम में नहीं| गृहस्थी ब्राह्मण अर्थात् जो वैदिक विद्वान गृहस्थ में रहता है, वही सभी वैदिक संस्कारों को (पुरोहित के कार्यो को) करा सकता है| ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ स्वयं यज्ञ कर सकते हैं| परन्तु दूसरो के यहाँ पुरोहित बनकर नहीं करा सकते | दूसरी ओर एक सन्यासी न स्वयं यज्ञ कर सकता है न ही दूसरो के लिये यज्ञ कर्म करा सकता है| केवल गृहस्थी पुरोहित ही दूसरों के लिये यज्ञकर्म करा सकता है| सन्यासाश्रम को उच्चकोटि का आश्रम मन जाता है क्योंकि स्वर्ग की कामना करने वाले लोग तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य,गृहस्थ और वानप्रस्थ) में रहते हैं अतः कहते है कि स्वर्ग की कामना करने वाले लोग यज्ञ किया करें| वैदिक धर्म में सन्यासी को यज्ञ अर्थात् कर्मकांड न करने की पूरी छुट प्राप्त है क्योंकि यज्ञ भी एक प्रकार का कर्मकांड ही है और वैसे भी सन्यासाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व, सन्यासाश्रम की दीक्षा ग्रहण करते समय, उनका धारण किया हुआ यज्ञोपवीत उतार दिया जाता है अर्थात् इसके बाद वह सन्यासी भविष्य में यज्ञकर्म करने से पूर्णरूपेण मुक्त है| दूसरे अर्थों में यज्ञ करने का आदिकर मात्र यज्ञोपवीत धारण करने वाले महानुभाव को यज्ञोपवीत धारण करना अनिवार्य होता है|
एक सच्चे संन्यासी का यह विशेष और आवश्यक कर्तव्य है कि वह प्रतिदिन प्राणायाम करे| एक स्थान पर न रुके अपितु सब स्थान जाकर समाज के अन्य वर्गों तथा वर्णों के लोगों में वेद-ज्ञान का प्रचार-प्रसार करता रहे| समाज की राजनीति में न पड़े| एक सच्चा संन्यासी संसार की सुख-सुविधाओं को स्वेच्छा से त्याग कर अपनी आत्मोन्नति के मार्ग पर चलकर आध्यात्मिक क्षेत्र में पहुँच चुका होता है| उसका ध्येय है-आत्म निरीक्षण करना, परमात्मा का साक्षात्कार (आनन्द की अनुभूति) करना| वह ऐसी स्थिति में पहुँच चुका है कि उसे सांसारिक वस्तुओं से कोई लगाव या उसकी इच्छा नहीं होती| अब वह मुक्ति के मार्ग का राही है| यह सब सोच-समझ कर ही वह संन्यासाश्रम को ग्रहण करता है| कर्म का फल तीन प्रकार से प्राप्त होता है-१ . फल २. परिणाम और ३. प्रभाव| यज्ञ एक प्रकार का विज्ञान है और विज्ञान सबके उपकार या लाभ के लिये होता है| कर्म का फल सदैव कर्ता को ही प्राप्त होता है और जैसे कि यज्ञ का कर्ता यजमान होता है अतः यज्ञ का फल यजमान को ही प्राप्त होता है| यज्ञ का परिणाम है वायुमंडल को शुद्ध पवित्र करना| यज्ञ का प्रभाव सब जीवों पर पड़ता है और मुख्यतः यज्ञ में भाग ले रहे सभी अतिथियों पर अवश्य रूप से पड़ता है और उसका लाभ पहुँचाता है|
यज्ञ से आत्मोन्नति होती है, सबके प्रति प्रेम और श्रद्धा उत्पन्न होती है, मन में शान्ति का वास होता है, बिगड़े काम सँवर जाते हैं तथा उलझे काम सुलझ जाते हैं, घर में सुख-समृद्धि शान्ति आती है तथा स्वास्थ्य लाभ होता है, अर्थात् यज्ञ से सबका, सब प्रकार से भला ही भला होता है| जिससे हम या हमसे जो जाने-अनजाने में अहित या द्वेष करता है यज्ञ से उसका भी कल्याण होता है| यज्ञ एक प्रकार का विज्ञान (विशेष-ज्ञान) है, जिसके अनेक लाभ होते हैं और हानि किंचित् मात्र भी नहीं होती अतः यज्ञ करना सर्वश्रेष्ठ कार्य है जो सब मनुष्यों को करना चाहिये|
यज्ञ कर्तव्य
यह ॠग्वेद का सुभाषित है कि ‘सब बलवान और उत्साही मनुष्यों का यह कर्तव्य है कि वे अपनी और समाज की उन्नति और कल्याण के लिए यज्ञकर्म किया करें’| वेदों में परम पिता परमात्मा को ‘आनंदस्वरूप’ कहा है क्योंकि परमात्मा आनंद का स्त्रोत है और जो उनके सान्निध्य में रहता है वह भी आनंदमय हो जाता है| परमात्मा को यज्ञस्वरूप भी कहते है क्योंकि उसके समस्त कार्य यज्ञमय (परोपकारार्थ) होते हैं अर्थात् सब जीवों के हितार्थ होते हैं| प्राचीन काल से ‘यज्ञ’ भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक अभिन्न अंग/चिन्ह् रहा है इसलिये भारतीय संस्कृति में हर शुभ कार्य करने से पूर्व ‘यज्ञकर्म’ करने का विधान है| प्रत्येक परोपकारी कार्य को ‘यज्ञ’ कहते है| यज्ञ (अग्निहोत्र/हवन) एक प्रकार का कर्मकांड है, सर्वश्रेष्ठ गुणों का प्रतीक है, जिससे याज्ञिक (यज्ञकर्ता) अनेक बातें सीख सकता है|
अग्नि प्रकाश का प्रतीक है, अग्नि से प्रकाश मिलता है तथा उसकी ज्वालाएँ ऊपर की ओर जाती है अतः वे हमें सिखाती है कि मनुष्य को अपने जीवन में सदा प्रकाश अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए जिससे वह सदैव ऊपर अर्थात् प्रगति कके मार्ग पर अग्रसर रहे! घी स्नेह और मित्रता का प्रतीक है| सामग्री संगठन का प्रतीक है और समिधा समर्पण का प्रतीक है| ‘स्वाहा’ यज्ञ का आत्मा है अर्थात् ‘स्वाहा’ के बिना यज्ञ करना निरर्थक है! ‘इदं न मम’ यज्ञ के प्राण हैं| यदि आप निष्काम कर्म की भावना से करते है तो वह सब यज्ञकर्म कहलाता है! अगर आप किसी प्यासे प्राणी (मनुष्य, पशु-पक्षी इत्यादि) को जल पिलाते हैं, भूखे व्यक्ति या पशु को भोजन खिलाते हैं, किसी दुःखी व्यक्ति के दुःख को कम करने का प्रयास करते हैं, किसी जरूरतमंद गरीब रोगी को औषधि दिलाते हैं, कमजोर वर्ग के बच्चे को पढ़ाते है या उसकी पढ़ाई के लिये प्रबंध करते हैं, रोते बच्चे को हँसाते हैं इत्यादि अनेक कार्य हैं ये सभी यज्ञ कर्म कहाते है! यदि आपकी कमाई का दान सुपात्र को जाता है, अस्पतालों में रोगियों के इलाज के लिए जाता है, अनाथालयों में जाता है, वृद्धाश्रमों में जाता है, वैदिक गुरुकुलों में जाता है इत्यादि और भी अनेक संस्थाओं में जाता है तो ये सब यज्ञकर्म हैं| इससे आपके धन का सदुपयोग होता है! यही निष्काम कर्म है और यही यज्ञकर्म है| यज्ञ करने से ईश्वर के प्रति ‘श्रद्धा और प्रेम’ उजागर होता है, मन में शांति और एकाग्रता आती है, आपसी मित्रता बढ़ती है, प्रदूषण की निवृत्ति होती है|
यज्ञकर्म सूर्य के प्रकाश के होते ही करना चाहिये क्योंकि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लाभकारी होता है| विवाह संस्कार के निमित्त बनी यज्ञशाला को ‘कल्याणमण्डप’ कहते है| बृहद् यज्ञो में ब्रह्मा (यज्ञ निरीक्षक), अध्वर्यु (यज्ञ मण्डप की व्यवस्था करने वाला एवं ॠग्वेद के मंत्रो का सस्वर पाठ करने वाला) के आसन निर्धारित होते है| साधारण साप्ताहिक यज्ञ में ब्रह्मा नहीं होता मात्र पुरोहित और यजमान होते है| होता या यजमान का आसन पश्चिम में और मुख पूर्व दिशा में निर्धारित होता है| यज्ञ के ब्रह्मा तथा पुरोहित का आसन दक्षिण में और मुख उत्तर दिशा की ओर सुरक्षित होता है| अध्वर्यु का आसन उत्तर में व मुख दक्षिण दिशा में होता है| उद्गाता का आसन पूर्व में और मुख पश्चिम दिशा में सुरक्षित होता है| हवनकुण्ड यज्ञशाला के मध्य में रखा जाता है| यज्ञ का आयोजन करने वाले यजमान को इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि ब्रह्मा का आसन उपस्थित यजमान तथा दर्शकों से थोड़ा सा ऊँचा (याग्निक के स्तर में थोड़ा सा नीचे) हो ताकि वह यज्ञकर्म की सम्पूर्ण गतिविधियों का अच्छी तरह से निरीक्षण कर सके|
यज्ञ में कोई त्रुटी न हो, इसका पूरा उत्तरदायित्व ब्रह्मा पर होता है| ब्रह्मा/यजमान का आसन यज्ञाग्नि के स्तर से ऊँचा होना चाहिये| ‘यज्ञोपवीत’ यज्ञ करने का अधिकार प्रदान करता है, शुभकर्म करने की प्रेरणा देता है और अशुभ कर्मो से बचाता है| यज्ञोपवीत वैदिक संस्कृति और सभ्यता का एक प्रतीक है| वैदिक धर्मानुसार ‘सन्यासाश्रम में प्रवेश करने वाले इच्छुक व्यक्तियों का धारण किया हुआ यज्ञोपवीत उतार दिया जाता है क्योंकि सन्यासियों का पूरा जीवन ‘यज्ञमय’ (अग्निरूप परोपकारार्थ) होता है| सन्ध्या (परमात्मा का ध्यान) करने का अधिकार सब मनुष्यों को समान रूप से प्राप्त है| यज्ञोंपयोगी सावधानियाँ-यज्ञ (अग्निहोत्र/हवन) के प्रयोग में आने वाले पात्र (बर्तन) स्वर्ण, चाँदी, ताम्बे के धातु के या काष्ठ के होने चाहिये (संस्करविधि)|
सामान्यतः इन पात्रों की आवश्यकता पड़ती है-एक दीपक , घी रखने के लिये एक चौड़ा पात्र (आज्यस्थाली) तथा एक लम्बी स्रुवा (लम्बी पकड़ वाला चम्मच), एक कलश (प्रोक्षणीपात्र) जिससे जल सेचन करते हैं| सामग्री के चार और स्थालीपाक आदि रखने के लिए (शाकल्यपात्र) पात्र, चार आचमन पात्रों के साथ में चार छोटे चम्मच, एक पात्र में उबले हुए थोड़ी मात्रा में नमक-रहित या मीठे चावल, एक नारियल तथा आम के पत्तों से ढका जल से भरा एक कलश (अग्निपुराण) जो जल प्रसेचन के काम आता है| अग्नि प्रदीप्त करने करने के लिये आठ अंगुल लम्बी (लगभग 7”) तथा उँगलियों जितनी पतली तीन समिधाएँ (चन्दन की समिधाएँ) चन्दन की समिधाएँ हों तो बेहतर)| उपर्युक्त के अतिरिक्त चार हाथ पोंछने के छोटे सूती वस्त्र या Napkins या Tissue Papers और यजमानों एवं अतिथियों के लिये यज्ञोपवीत उपलब्ध होने चाहियें|