Yagya

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पर्यवरण प्रदूषण को हटाने में सहायक है धूप यज्ञ हवन

वायु अमृत्व की निधि है वह हमें जीवन देती है ऑक्सीजन देती है लेकिन बदलती हुई जीवनशैली ने हमारी पारंपरिक मान्यताओं से खिलवाड़ किया मानव प्रदूषण ही हमारे लिए तरक्की का पर्याय बन गया पिछले कुछ सालों से हम अपने स्वभाव से ही नहीं अपने व्यवहार से भी प्रकृति में जहर घोलने के आदि हो चुके हैं प्रदूषण की भयावहता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन वायु प्रदूषण को पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी अर्थात जन स्वास्थ्य के लिए आपातकाल कहता है लंदन के किंग्स कॉलेज के एक अध्ययन में पाया गया की वायु प्रदूषण युवाओं में कई मनोविकृति यों को जन्म देता है सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि वायु प्रदूषण के कारण मनुष्य के फेफड़ों पर बुरा असर पड़ता है लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया कि वायु प्रदूषण शरीर के हर अंग पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है वायु प्रदूषण के कारण व्यक्ति में तनाव पैदा करने वाले हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है और वह अस्वाद का शिकार हो जाता है बुजुर्गों में समझने की क्षमता में गिरावट संबंधी डिमेंशिया रोग हो जाता है अनेक प्रकार की मानसिक बीमारियां जो जल्दी से नहीं दिखती हैं
अधिकतर लोगों में हो जाती हैं
कीटनाशकों के संपर्क में रहने से कैंसर अल्जाइमर पार्किंसन हार्मोन असंतुलन विकास विकास संबंधी बीमारी और बांझपन की समस्या हो सकती है एक अनुमान के अनुसार विषाक्त प्रदूषण सामायिक मृत्यु का बड़ा कारण है इसके अलावा कीटनाशकों के अत्याधिक उपयोग से भूमि भूगर्भ जल एवं भोजन की पोषण क्षमता में अत्यधिक कमी हो जाती है ज्यादातर बीमारियों का संबंध बाजार के खाद्य उद्योग के अस्वास्थ्य कर आहार से जुड़ा पाया गया है
विदेशी कंपनियों द्वारा जीएम बीजों की बमबारी से रसायन प्रदूषण को अत्याधिक बढ़ा दिया है
खाद्य आपूर्ति पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है जिससे संक्रामक बीमारियों का कारण उत्पन्न हो गया है एक सर्वेक्षण के मुताबिक भूमि में सल्फर नाइट्रोजन व अन्य पोषक तत्वों की कमी आई है भूमि बंजर हो रही है
पर्यावरण के परिवर्तनों के कारण ग्लोबल वार्मिंग क्लाइमेट चेंज ने अनेक बीमारियों को जन्म दिया है लोगों के सामने आजीविका के साथ ही अपने अस्तित्व को बचाने का संकट खड़ा हो गया है इसलिए खुद को सुरक्षित रखने के लिए करोड़ों लोग अपना आशियाना छोड़ चुके हैं यानी विस्थापित हो चुके जिससे शहरों पर भार बढ़ गया है। प्रदूषण से कई समस्याओं से धिर गया जनसंख्या प्रदूषण विस्फोटक स्थिति में आ चुका है विश्व के 20 में से 15 शहर हमारे देश के अत्याधिक प्रदूषित शहरों में हैं हम कहां खड़े हैं?
प्रदूषणो का जंजाल पैरानॉर्मल प्रॉब्लम बनता जा रहा है जो समझ में ही नहीं आ रहा है
प्रकृति के साहचर्य में ही हमारी संस्कृति है यज्ञो के देश में पर्यावरण शुद्ध करने के लिए यज्ञ की ओर लौटे।

yagya

पूजा पाठ धूप हवन यज्ञ पर पंडित जी से चर्चा वा सवाल।

यज्ञीय देश ऐसा कई भारतीय बोलते हैं
यज्ञीय देश यज्ञीय वातावरण
यज्ञ करने वाले अनेक कर्मकांडी पंडितों से साक्षात्कार विद्वानों से पूछे गयै सामान्य प्रश्न

पंडित जी आपने अनेक यज्ञ हवन किए हैं धूप तो आप रोज ही लगाते हैं हानिकारक केमिकल से आप पर क्या असर होता है? धूप यज्ञ हवन सामग्री इसमें आप नीचे क्या जलाते हैं और ऊपर से क्या वनस्पतियां डालते हैं इस संबंध में हम आपसे बात करना चाहते हैं जिसका हमें प्रत्यक्ष अनुभव होता है आप जो नीचे जलाएंगे और ऊपर से वनस्पतियां डालेंगे उसका प्रभाव सर्वप्रथम वहां पर बैठे सभी लोगों पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा सामग्री जड़ी बूटियां आप कैसे चयन करते हैं इसमें क्या होना चाहिए यह किस प्रकार असर करती है इसका क्या उद्देश्य है यह हमारा पहला प्रश्न है अधिकतर पंडित जी का जवाब था की सामग्री हम लिख कर देते हैं यजमान लाता है या वह हमें रुपए देते हैं और बाजार से हम रेडीमेड जो मिलती है वह लाते हैं उसी से यज्ञ होता है मैंने कहा अगर सामग्री सही नहीं होगी तो यजमान को नुकसान होगा वहां पर बैठना मुश्किल हो जाएगा सही सामग्री नहीं होने से परिणाम भी प्राप्त नहीं होगा जिस हेतु यज्ञ किया जा रहा है
यज्ञ हवन सामग्री का सही चयन यह आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है सही सामग्री नहीं होने से अनेक कष्ट होते हैं
पंडित जी से आगे बात करने पर मैंने कहा पंडित जी यजमान तो कभी-कभी ही यज्ञ करवाता है आप तो रोज यज्ञ करवाते होंगे इसका गलत सामग्रियों का प्रभाव आप पर सबसे पहले और सबसे ज्यादा पड़ेगा गलत सामग्रियों के संपर्क में रहने से आप बीमार पड़ेंगे वातावरण में प्रदूषण उत्पन्न होगा कचरा सामग्री केमिकल युक्त सामग्री से आपका स्वास्थ्य खराब होगा इस बात कै जवाब में पंडित जी ने कहा कि हमें सही सामग्री बाजार में नहीं मिलती है नकली तेल निकली हुई पुरानी जड़ी बूटियां ही मिलती हैं हम क्या करें
मैंने पंडित जी को कहा यह आपके स्वास्थ्य का सवाल है क्योंकि यज्ञ करना और करवाना एक चिकित्सालय खोलने के समान है इससे स्वास्थ्य का संरक्षण और प्रतिरक्षा प्रणाली विकसित होती है शास्त्रों में यज्ञ को हवी भी कहते हैं जिसका अर्थ है विष को हरने वाला
पंडित जी के पास इस प्रश्न के कोई उत्तर नहीं थे
गलत सामग्रियों के प्रयोग से आंखें चलती हैं एलर्जी होती है दम घुटता है प्रदूषण फैलता है सांसों में संक्रमण होता है बेचैनी घबराहट होती है मन नहीं ठहरता ना ही भगवान से कनेक्शन होता है ना ही अपने आप से
भगवान भी कहते होंगे कि यह क्या हो रहा है
मेरा अगला प्रश्न पंडित जी से यह था की आपने अनेक यज्ञ किए और करवाएं कितनी सामग्री क्विंटल से आप होम चुके हैं क्या आपने कभी यज्ञीय वृक्ष लगवाए हैं यह मेरा अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न पंडित जी से था जिसका उत्तर अधिकतर पंडित जी नहीं दे पाए क्योंकि उन्होंने ऐसा कभी प्रयास नहीं किया था
यज्ञिय वृक्ष के प्रश्न पर पंडित जी ने कहा कि यह क्या होता है मैंने कहा पंडित जी जो वनस्पतियां जड़ी बूटियां आप हवन में उपयोग करते हैं वह पेड़ पौधों से ही तो हमें प्राप्त होती हैं उन पेड़ पौधों को हमें लगवाना चाहिए और यह कार्य सतत करते रहना चाहिए जिससे ऐसी वनस्पतियों का अभाव ना हो और वह हमेशा सुगमता से प्राप्त होती रहे ऐसी वनस्पतियां जो रोग नाशक हो ग्रह नक्षत्र देवी देवता से संबंधित हो वायरस कीटाणु फंगस बैक्टीरिया नाशक हो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाएं जिससे सुगंध चिकित्सा हो जो रोगाणु विषाणु कीटाणुओं को नष्ट करने वाली हो जो पर्यावरण शुद्ध करने वाली हो ऐसी वनस्पतियां हमें लगवाना ही चाहिए यज्ञ का भैषज गुण वातावरण शुद्ध करता है इसी तरह जो वृक्ष यज्ञीय होते हैं उन वृक्षों से वातावरण अनेक प्रकार से शुद्ध होता है इन वृक्षों से छनकर जो हवाएं चलती हैं वह औषधीय गुणों से युक्त होती हैं जो हमारे स्वास्थ्य को उत्तम लाभ देती हैं आज धरती पर ऑक्सीजन की कमी से कई प्रकार की विकृतियां पैदा हो रही है शरीर का मेटाबॉलिज्म डिस्टर्ब हो रहा है मानसिक व्याधियों हो रही हैं पर्यावरण प्रदूषित होने से मनुष्य में मानसिक प्रदूषण बढ़ रहा है जिससे तनाव उत्पन्न हो रहा है सभी आत्म केंद्रित होते जा रहे हैं जबकि मनुष्य का भाग्य उसके वातावरण से जुड़ा है वह न केवल अपना भौतिक आहार बल्कि उससे सामाजिक प्रतिभा सूक्ति और आत्मीय वृद्धि भी प्राप्त करता है पंडित जी हमारे ऋषि-मुनियों ने क्या कहा क्यों धर्म से जोडा पहले साधन कम थे साधक ज्यादा थे अब साधन ज्यादा हैं साधक कम है ऐसा क्यों है? भारत में वैज्ञानिकों को ऋषि कहकर सम्मान देने की प्रथा रही है इतना ही नहीं वैज्ञानिक सिद्धांत का धर्म में इतना समावेश किया गया है कि उसे अलग करके नहीं देखा जा सकता वनों से आरोग्यता बढ़ती है 24 घंटों में मनुष्य 21600 बार सांस लेता है सांस का आवागमन हमेशा चलता रहता है उतनी ही बार रक्त शुद्ध होता है इस कारण योग्य तथा स्वाभाविक सांस चलना अति महत्व का है
पर्यावरण का धर्म रहस्यमयी विज्ञान है
वृक्षा हमारी शारीरिक मानसिक वैचारिकता
को प्रभावित करते हैं वनस्पति जड़ नहीं चेतना वनस्पति आध्यात्मिकता पैदा करती हैं मानवीय स्वास्थ्य हमारी देश की भौतिक तथा मानसिक स्थिति के साथ-साथ ऊर्जाईशविता पर भी निर्भर करता है जब हमारे चारों और का ऊर्जा क्षेत्र श्रेयस सकारात्मक प्रभावशाली होता है तो हम भी पूर्ण उत्साहित उल्लासित तेजस्वित एवं आनंदित रहते हैं इसलिए भूमि को हरा भरा हरिहर हरि मय बनाएं
भारतीय ऋषियों द्वारा स्थापित परंपरा आस्था मान्यता विश्वास संस्कृति पूजा पाठ धूप दीप यज्ञ हवन रहन-सहन खानपान उत्सव त्यौहार मौसम परिवर्तन सनातन सभ्यता अनुरूप बनाए हमारे वातावरण पर्यावरण प्रकृति अनुरूप बनाए जो हमारे जीवन जीने की पद्धति स्वास्थ्य रक्षा बुद्धि विकास और प्रगति के संतुलित उपयोग को ध्यान में रखकर बनाए गए थे
स्वयं से स्वयं को मिलाने वाला स्वास्थ्य संरक्षक माध्यम
इसी तरह का वातावरण यज्ञ में होमी गई शुद्ध वनस्पतियों से भी प्राप्त होता है यज्ञीय देश यज्ञीय वातावरण यज्ञीय वृक्ष वनस्पतियां जड़ी बूटियां उतनी ही आवश्यक है यज्ञ शेष भी इसीलिए अति उत्तम है उपयोगी है हमारे यहां बाग बगीचे लगवाना भी यज्ञ है इसका नाम ईषटापूर्त
यज्ञ है इसमें कुआ तालाब बनवाना भी सम्मिलित है इसी तरह शिव ही प्रकृति है और इसीलिए वृक्षों को पशुपति और पशुओं को प्रजापति कहा गया है गोमेघ यज्ञ से तात्पर्य है की भूमि को उर्वरा बनाकर वनस्पति उगने योग्य बनाना
मनुस्मृति मैं कहा गया है कि यज्ञ के संपर्क में आने से ब्राह्मणतव का उदय होता है क्योंकि यज्ञ की उषमा से व्यक्ति का संपर्क होने पर वह मनोविकार मुक्त होता है मनुष्य विचारशील बनता और चरित्रवान बनता है
अतः यज्ञ हवन सामग्री
हमारे लिए अत्यंत महत्व रखती हैं यह हमारे वैदिक व्यवहार को दर्शाती हैं
हमारी संस्कृति सभ्यता का अर्थ क्या है जीवन की शुद्धि और उससे जुड़ी समृद्धि ऋषियों ने हमें यही सीख दी
यज्ञ हवन सर्व कल्याणकारी है और वृक्षारोपण अत्यंत आवश्यक
विचार अवश्य कीजिएगा।

धूप यज्ञ हवन मैं उपयोग की जाने वाली फायदा पहुंचाने वाली कौन-कौन सी जड़ी बूटियां का काम कहां कहां होना चाहिए किस क्षेत्र में वे उपयोगी हैं

विचार हमें करना है।

हमें अपने आप से कुछ सवाल भी करने पड़ेंगे
हमारी सामग्री में क्या उपयोगी है और क्यों ?

निरोगी शरीर बल बुद्धि पॉजिटिविटी के लिए जड़ी बूटियां विज्ञान सम्मत स्वास्थ्य का संरक्षण करने वाली माइंडफूलनेस
वैलनेस वाली जड़ी बूटियां
हमें पूजा पाठ का मूल उद्देश्य भी समझना होगा ध्यान पूजा में हम अपने आप को अपने आप से कनेक्ट करते हैं हम अपने आप से मिलते हैं और उस कंसंट्रेशन उस रिलाइजेशन उस कनेक्शन को हम अपने आप में डिस्कवर करते हैं माय बॉडी एंड मी
नवचेतना स्वयं का अंतर्मन अंतरात्मा अंतः करण से मिलना अपनी ही आत्मा का अध्ययन करना इन सब में जो माध्यम जो उत्प्रेरक जो कंपनियन मटेरियल हमें सहायता करें जो self-realization में सहायक हो ऐसे माध्यम के लिए कौन-कौन से क्षेत्रों में काम करने वाली जड़ी बूटियां जो ग्रह नक्षत्र देवी देवता का भी प्रतिनिधित्व करें आइए मंथन करें
पूजा में जो धूप जलाते हैं हवन करते हैं उसकी सामग्री से हम क्या चाहते हैं क्यों वह शुद्ध फ्रेश बिना तेल निकली हुई रसपूर्ण असली जड़ी बूटियां होनी चाहिए
जड़ी बूटियों में एंटीवायरस एंटीवायरल बैक्टीरिया एंटीफंगल हेलमाइंथिक एंटी डिप्रेशन एंटी एलर्जी एंटी ऑक्सीडेंट एंटी रेडिएशन एंटीसेप्टिक एंटीऑक्सीडेंट जड़ी बूटियां होना आवश्यक है एंटीमाइक्रोबियल्स एक्टिविटी और एंटीबायोटिक गुणों से युक्त जड़ी बूटियां चतुर्मास वर्षा ऋतु के सीलन सडन को दूर करने वाली मौसम के परिवर्तन पर उत्पन्न होने वाले वायरस कीटाणु फंगस बैक्टीरिया से रक्षा करने वाली जड़ी बूटियां एवं मौसम परिवर्तन के रोगों से रक्षा करने वाली जड़ी बूटियां
ऐसी जड़ी बूटियों का समावेश जो मानसिक स्वास्थ्य को ठीक कर सके जिससे
हमारे अंदर की बुरी भावना अस्वाद डलनेस घबराहट झुनझुनाहट सनकी पन ड्रामा फ्रस्ट्रेशन बेचैनी याददाश्त नफरत डिप्रेशन ठीक हो सके न्यूरो रिलैक्सेशन हो मानसिक स्वास्थ्य सौरक्षण हो मानसिक दृढ़ता स्ट्रांगनेस आए
सुगंधी युक्त सौम्या वातावरण उत्पन्न हो सुगंध चिकित्सा हो ऐसी मूड फ्रेशनर जड़ी बूटियां
वातावरण प्रदूषण मुक्त हो प्रदूषण में व्याप्त अनेक अलग-अलग प्रकार का प्रदूषण ठीक हो पंचतत्व शुद्धि करण सैनिटाइजेशन डिटॉक्सिफिकेशन
मेटाबॉलिज्म ठीक कर रेगुलेट कर ऑक्सीजन की वृद्धि करे ऐसी जड़ी बूटियां धूम्र चिकित्सा द्वारा रक्त संचालन ठीक हो शरीर के रोम छिद्रों द्वारा सांसो द्वारा शरीर के सभी अबयव को निरोगी करने वाली पहुंचाने वाली एवं बलवर्धक पुष्टि कारण संक्रमण से रक्षा करने वाली अच्छे आयनों की संख्या बढ़ाने वाली प्रतिरक्षण क्षमता को विकसित करने वाली जड़ी बूटियां
साथ ही सर्व कल्याणकारी सर्व औषधी सफलता तंत्र प्रतिनिधित्व करती हुई कार्य सिद्धि विजय प्राप्ति एवं विशेष प्रयोजन के लिए उपयोग की जाने वाली अनेक जड़ी बूटियां
इसी प्रकार जादू टोना नजर ऊपरी बाधा हाय कला वास्तु दोष पित्र दोष दुर्घटना से बचाव रक्षाकारी सर्व कल्याणकारी जड़ी बूटियां साथ ऊर्जा उत्साह उमंग प्रसन्नता का वातावरण निर्मित करने वाली जड़ी बूटियां ऐसी सामग्री से बनी धूप यज्ञ हवन सामग्री हमारे लिए सर्व कल्याणकारी सभी प्राणियों पर समान रूप से शुभ लाभ देने वाली हीहो।

पूजा धूप यज्ञ हवन सामग्री द्वारा हम प्रदूषण हटा रहे है या बढ़ा रहे है।

आज चारों ओर प्रदूषण है पंचतत्व में प्रदूषण ऐसा घुला मिला है कि एक की बात करो तो दूसरा तीसरा चौथा प्रदूषण आ जाता है रोज वायु में मिश्रित विभिन्न गैस से हम प्रभावित हो रहे हैं इन 22 प्रकार की हानिकारक गैसों का पता डब्ल्यूएचओ को चला है जो वायु में प्रदूषण फैला रही हैं शहर हाफ रहे हैं और बीमार हैं क्या हम गैस चेंबर में रहे हैं
70% लोगों को शुद्ध पानी पीने के लिए नहीं मिल रहा रसायन और जल भूमि पर ऐसा घुल मिल रहा है जिससे भूगर्भ जल चक्र प्रदूषित हो चुका है भोजन रसायन युक्त मिल रहा है
यह कैसी प्रगति है विज्ञान के चमत्कार हमारा जीवन सहज बनाते हैं पर प्रकृति चमत्कार धूप हवा पानी वनस्पति के बिना जीवनी संभव नहीं है जबकि हमारे संस्कृति का अर्थ जीवन की शुद्धि और उससे जुड़ी समृद्धि है इस प्रकार के वातावरण से मानसिक प्रदूषण बढ़ रहा है हमारे देश में 40% से अधिक लोग किसी न किसी रूप में असवाद से ग्रसित हैं पर्यावरण नष्ट होने से अनेकों बीमारियां हो रही हैं डब्ल्यूएचओ यह भी कहता है कि अन्य देशों की अपेक्षा हमारे देश में प्रदूषण के कारण मनुष्य की सांस लेने की क्षमता 40% से भी कम है
असली जीडीपी हवा पानी धूप मट्टी व पर्यावरण है
अनेक प्रकार के प्रदूषण से हम घिरे हैं रसायन प्रदूषण भोजन प्रदूषण जनसंख्या प्रदूषण मिट्टी का प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग क्लाइमेट चेंज इन सब के कारण मानसिक प्रदूषण डिप्रेशन स्ट्रेस नेगेटिव थॉट असुरक्षा की भावना सुसाइडल टेंडेंसी बढ़ रही है कार्य क्षमता प्रजनन क्षमता बौद्धिक विचार घट रहे है। आध्यात्मिक अवनति डर भय घबराहट बेचैनी है मन भावना नकारात्मकता अविश्वास विचारों का संक्रमण हर तरफ है।
इन सब से बचने के लिए हम भगवान की शरण में जाते हैं पूजा पाठ करते हैं मेडिटेशन करते हैं इन सब को करने के लिए माध्यम के रूप में हम पूजा सामग्रियों का उपयोग भी करते हैं
धूपदीप हवन भी करतै है।
वही पूजन सामग्री रसायनिक प्रदूषण युक्त है केमिकल युक्त है नकली है वह प्रदूषण को हटा नहीं रही है बल्कि प्रदूषित जहरीला वातावरण बना रही है
धूप यज्ञ हवन द्वारा हम प्रदूषण को हटाते हैं धूप यज्ञ हवन में उपयोगी वनस्पतियां जड़ी बूटियो का कार्य प्रदूषण मुक्त स्वस्थ वातावरण बनाना है जबकि हम गलत सामग्रियों का उपयोग कर प्रदूषण बढ़ा रहे हैं बाज़ार नकली से भरा पढ़ा है सही कहां कैसा है खोज का विषय है।
विचार अवश्य कीजिए।

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यज्ञों के प्रभाव , भेषज यज

ऋतु-सन्धि तथा दिन-रात की सन्धि यज्ञ करने के लिए सर्वोपयुक्त काल है। सन्धिकाल, संक्रमणकाल होता है। प्रकाश ऋण, धन भागों में विभक्त हो जाता है, यह रोग-कीटाणुओं की वृद्धि के लिए बड़ा ही अनुकूल समय होता है और उसकी आक्रमण शक्ति भी इस समय बढ़ जाती है। संख्या और शक्ति बढ़ जाने से ये निरोग शरीर को भी रोगी बनाने का साहस करने लगते हैं।

यज्ञ में रोग निरोधक शक्ति है। उससे प्रभावित शरीरों पर सहज ही में रोगों के आक्रमण नहीं होते हैं। यज्ञाग्नि में जो जड़ी-बूटी, शाकल्य आदि होम किए जाते हैं वे अदृश्य तो हो जाते हैं पर नष्ट नहीं होते। सूक्ष्म बनकर वे वायु में मिल जाते हैं और व्यापक क्षेत्र में पैलकर रोगकारक कीटाणुओं को खत्म करने लगते हैं। यज्ञ धूम्र की इस शक्ति को प्राचीन काल में भली प्रकार परखा गया था। इसका उल्लेख शास्त्रों में स्थान-स्थान पर उपलब्ध है। जैसे- यजुर्वेद में कहा गया है अग्नि में प्रक्षिप्त जो रोगनाशक, पुष्टि प्रदायक और जलादि संशोधक हवन सामग्री है, वह भस्म होकर वायु द्वारा बहुत दूर तक पहुँचती है और वहाँ पहुँचकर रोगादिजनक घटकों को नष्ट कर देती है। इसी तरह अथर्ववेद में कहा गया है- “अग्नि में डाली हुई हवि रोग कृमियों को उसी प्रकार दूर बहा ले जाती है, जिस प्रकार नदी पानी के झागों को बहा ले जाती है। यह गुप्त से गुप्त स्थानों में छिपे हुए घातक रोगकारक जीवाणुओं को नष्ट कर देती है।
यज्ञाग्नि से बची हुई भस्म का भी औषधियों की तरह प्रयोग किया जाता है। इसी तरह के प्रयोग-परीक्षण चिली, पोलैण्ड तथा पश्चिम जर्मनी में भी चल रहे हैं। इन प्रयोगों में न केवल अनेक वनौषधियाँ प्रयुक्त होती हैं, वरन् अनेक स्तर की समिधाओं का भी एक दूसरे से भिन्न प्रकार का प्रतिफल पाया गया है। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि जिन क्षेत्रों में इस प्रकार के यज्ञ आयोजन हुए हैं, वहाँ अपराधों की संख्या कम हुई है। मानसिक तनाव एवं पारस्परिक द्वेष कम हुए हैं, यज्ञ वातावरण की प्रत्यक्ष उप्लाव्धिया देखी गई हैं। जिन परिवारों में अग्निहोत्र का प्रचलन हुआ है, उनमें बीमारी के प्रकोप में कमी हुई है।

gaureesh yagya

सोलह संस्कारों मे यज्ञ

शास्त्रकारों ने ऐसे ४० मोड़ों को तलाशा उनमें से १६ को प्रमुख मानकर षोडश संस्कारों का प्रचलन किया। जिस तरह उपवन के पौधों और जंगली पेड़ों में एक मूलभूत अंतर होता है। उद्यान के वृक्ष स्वस्थ सुडौल और अधिक फल देते हैं, जबकि जंगली पेड़ों की डालें, तने सब अनगढ़ और अव्यवस्थित होते हैं। यह अंतर देखभाल करने वाले माली के पुरुषार्थ का प्रतिफल होता है। वह न केवल समय पर खाद–पानी देता है, अपितु काट–छाँट भी करता रहता है। संस्कार परम्परा भी व्यक्तित्व को निखारने की ऐसी ही स्वस्थ कला है। जो चिन्ह-पूजा के रूप में चल तो आज भी रही हैं, पर उनसे जुड़े लोकशिक्षण ने अब मात्र कर्मकाण्ड या खाने-पीने और मौज मनाने वाले कार्यक्रमों का रूप धारण कर लिया है। अतएव कुछ प्रतिफल नहीं निकल पाता है, ऐसी धारणा बनती जा रही है। पाँच माह की अवस्था में भू्रण का मस्तिस्क भाग बनना प्रारंभ होता है। यह एक तरह का शरीर का राज्याभिषेक पर्व है। पाँच माह में पुंसवन मनाने की परम्परा इसीलिए पड़ी। बीज को संस्कारित कर देने से पौधे स्वस्थ होते हैं यही इनका उद्देश्य है। हिन्दू संस्कार के अनुसार गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णभेद व विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह, अन्त्योष्ट और श्रद्धा यह सभी एक से एक बढ़कर महत्व आत्मसात किए हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सभी संस्कार उस आयु और अवस्था में सम्पन्न होते हैं जब उस तरह के विशेष मार्गदर्शन प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए बच्चे के शरीर का “हारमौनिक विकास ८ से १३ वर्ष की आयु में होता है। यह आयु जीवन का सबसे नाजुक मोड़ होती है। इसी आयु में अधिकांश बच्चे बिगड़ते हैं अतएव इसी आयु में यज्ञोपवीत या वृत-बंध रखा गया।” ब्रह्मचर्य आश्रम में इन सब बातों का विचार है। हमें क्या खाना चाहिए, क्या सुनना चाहिए, क्या देखना चाहिए, क्या पढ़ना चाहिए, वैसे बैठना चाहिए, कब उठना चाहिए आदि सब बातों का विवेकपूर्ण निश्चय करना चाहिए। ब्रह्मचर्य का भी एक शास्त्र है। ब्रह्मचारी बननेवालों को उस शास्त्र के अनुसार आचरण करना चाहिए। इसीलिए गाँधीजी हमेशा कहते थे कि ब्रह्मचर्य किसी एक इन्द्रय का संयम नहीं है। ब्रह्मचर्य जीवन का संयम है। ब्रह्मचर्य का पालन उसी समय संभव है जबकि कान, आँख, जबान आदि सभी इन्द्रयों का संयम किया जाय।

ब्रह्मचर्य पालन करने की बात आजकल बहुत कठिन हो गई है। चारों ओर का वातावरण बड़ा दूषित हो गया है। सबके मन मानो खोखले हो गए हैं। सब जगह ढीलढाल और पोलपाल आ गई है। ब्रह्मचर्य आश्रम में मानो पुनर्जन्म है। अब संयमी होना चाहिए। ध्येय की उपासना करनी चाहिए। अग्नि में समिधा होम देने के बाद ब्रह्मचारी को जो प्रार्थना बोलनी चाहिए वह है- हे अग्नि मुझे बुद्धि, विचारशक्ति और तेज दे। इन्द्र मुझे बुद्धि, विचारशक्ति और सामथ्र्य दे। सूर्य मुझे बुद्धि, विचारशक्ति और तेज दे। हे अग्नि ! मुझे अपने तेज से तेजस्वा होने दे। अपने विजयी तेज स मुझे महान बनने दे। मलिनता को भस्म कर देने वाले अपने तेज से मुझे भी माल्नता का भस्म करने वाला बनने दे। मेखला और कौपीन धारण करके बटु हाथ में दण्ड लेता है। उस समय वह कहता है|मुझे असंयमी को यह दण्ड संयम सिखाए। हे दण्ड! जब कहीं मुझे डर लगे तब तू उससे मेरा उद्धार कर। उपनयन के अंत में जो मेधासूक्त बोलते हैं, संयमी ज्ञानवान गुरु इसे उन्नति की ओर ले जाए। यह तरुण अध्ययन करके, मन को एकाग्र करके देवताओं का प्यारा बने, तेजस्वी बने।
हम यज्ञोपवीत पहनते हैं। उसका पहले अर्थ कुछ भी रहा हो। मुझे तो उसके तीन धागों में एक बहुत बड़ा अर्थ दिखाई दिया। कर्म, भक्ति और ज्ञान के तीन धागे ही मानो यह जनेऊ है। इन तीनों को एकत्र करके लगाई हुई गाँठ ही ब्रह्मगाँठ है। जब हम कर्म, ज्ञान और भक्ति को एक दूसरे के साथ जोड़ेंगे, तभी ब्रह्म की गाँठ लग सकेगी। केवल कर्म से, केवल ज्ञान से, केवल भक्ति से ब्रह्मगाँठ नहीं लग सकेगी। पूल की पँखुड़ी, उसके रंग और उसके गंध में जिस प्रकार का एक ही भाव है, और जिस प्रकार दूध, शक्कर और केशर को हम एक कर लेते हैं उसी प्रकार कर्म, ज्ञान और भक्ति को भी एक बना लेना चाहिए। बीज तुच्छ है किन्तु वह जिस पेड़ का अंश है उसी स्तर तक विकसित होने की संभावनाएँ उसमें पूरी तरह विद्यमान हैं। बीज को अवसर मिले तो वह अपनी मूलसत्ता वृक्ष के समान फिर विकसित हो सकता है। जीवात्मा की प्रखरता बढ़ता रहे तो उसकी विकास प्रक्रिया उसे महात्मा-देवात्मा एवं परमात्मा बनन की स्थति तक पहुँचा सकती है। इन सब पर्वों, उत्सवों, संस्कारों एवं अन्य सामूहिक आयोजनों में यज्ञ का कार्यक्रम निश्चत रूप से जुड़ा रहता था, जिसका उल्लेख शास्त्रों में विभिन्न स्थानों पर किया गया है। यज्ञ के ज्ञान एवं विज्ञान के सिद्धांत की अवधारणा से ही स्वर्णिम परिस्थतियों का सृजन संभव हो सका था। जन्म के बाद जात कर्म, नामकरण, अन्नप्रशासन, मुण्डन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत आदि कई संस्कार हैं जो बचपन की आयु में जल्दी-जल्दी सम्पन्न किए जाते रहते हैं। इन सब में यज्ञ अनिवार्य है। इससे बालक को और उसके निरन्तर सम्पर्व में आने वाले मातापिता व रिश्तेदारों को साम्मलित होना पड़ता है। इससे शारीरिक एवं मानसिक विकृतियों के उत्पन्न होने की आशंका का पूर्व निराकरण हो जाता है। यज्ञ के द्वारा मनुष्य की आत्माग्न प्रदीप्त होती है। आत्मााQग्न के प्रदीप्त होने से परमात्मा प्रसन्न होते हैं और वह प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता के समस्त मनोरथों को पूर्ण करते हैं (२/१४ शुक्ल यजुर्वेद) यज्ञ की अग्नि हविद्र्रव्य प्रदान करनेवाले को अत्यंत यशस्वी, ज्ञानी, विजयी और श्रेष्ठ वाग्मी (वक्ता) बनाती है और सर्वगुणसम्पन्न पुत्र प्रदान करती है (५/२५/५ ऋग्वेद)
ब्रह्मचारी बनने वालों को उस शास्त्र के अनुसार आचरण करना चाहिए। इसीलिए गाँधीजी हमेशा कहते थे कि ब्रह्मचर्य किसी एक इन्द्रिय का संयम नहीं है। ब्रह्मचर्य जीवन का संयम है। ब्रह्मचर्य का पालन उसी समय संभव है जबकि कान, आँख, जबान आदि सभी इन्द्रिय का संयम किया जाय। ब्रह्मचर्य पालन करने की बात आजकल बहुत कठिन हो गई है। चारों ओर का वातावरण बड़ा दूषित हो गया है। सबके मन मानो खोखले हो गए हैं। सब जगह ढीलढाल और पोलपाल आ गई है। ब्रह्मचर्य आश्रम में मानो पुनर्जन्म है। अब संयमी होना चाहिए। ध्येय की उपासना करनी चाहिए।
अग्नि में समिधा होम देने के बाद ब्रह्मचारी को जो प्रार्थना बोलनी चाहिए वह है- हे अग्नि मुझे बुद्धि, विचारशक्ति और तेज दे। इन्द्र मुझे बुद्धि,विचारशक्ति और सामथ्र्य दे। सूर्य मुझे बुद्धि, विचारशक्ति और तेज दे। हे अग्नि! मुझे अपने तेज से तेजस्वी होने दे। अपने विजयी तेज से मुझे महान बनने दे। मलिनता को भस्म कर देने वाले अपने तेज से मुझे भी मलिनता को भस्म करने वाला बनने दे। मेखला और कौपीन धारण करके बटु हाथ में दण्ड लेता है। उस समय वह कहता है- मुझे असंयमी को यह दण्ड संयम सिखाए। हे दण्ड! जब कहीं मुझे डर लगे तब तू उससे मेरा उद्धार कर। उपनयन के अंत में जो मेधासूक्त बोलते हैं, संयमी ज्ञानवान गुरु इसे उन्नति की ओर लेजाए। यह तरुण अध्ययन करके, मन को एकाग्र करके देवताओं का प्यारा बने, तेजस्वी बने

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दीपक / कलश और यज्ञ शेष

दीप और धूप यज्ञ दोनों ही भारतीय देव संस्कृति के प्राण हैं। दीपक प्रज्वलन देव पूजा का एक महत्वपूर्ण आधार है। देव पूजन में उसका सुनिश्चीत स्थान होता है। मंदिरों की सुबह-शाम की आरती में उसका अनिवार्य रूप से समावेश रहता है। दीपावली इस विद्या का वार्षिकोत्सव है। प्रत्येक धर्म-कर्म में दीपक जलाया जाता है। किसी खुशी के अवसर पर, समारोह शुभारंभ पर, उद्घाटन के अवसर पर अपने उल्लास-आनन्द को दीपक के द्वारा ही प्रकट किया जाता है।

घर में नित्य घी का दीपक जलाने से ऋणावेशित आयन्स की वृद्धि होती है। दरअसल घी का दीपक जलाने से घृत में उपस्थित विशिष्ट रसायनों का ऑक्सीकरण होता है। यही ऑक्सीकरण ऋणावेशित आयन्स अथवा घर की धनात्मक ऊर्जा में वृद्धि करता है। हमारे शास्त्रों में तो दीपक की लौ की दिशा के सम्बन्ध में भी पर्याप्त निर्देश मिलता है।

पुरातन वैज्ञानिक ऋषि सिद्धान्तों को अपनाएँ, हरियाली संवद्र्धन कर इस भूमि को हरीहर, हरी-भरी, हरीमय बनाएँ।

बचा चरू दिव्य प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। आहुतियों से बचा `इदत्रमम्’ के साथ टपकाया हुआ तथा वसोधरा से बचा घी घृतआवरण के रूप में मुख, सिर तथा हृदय आदि पर लगाया व सूंघा जाता है। होमीकृत औषधियों एवं अन्य हव्य पदार्थों से संस्कारित भस्म को मस्तक तथा हृदय पर धारण किया जाता है।

हवन के अन्त में समीप रखे हुए जल पात्र में कुश, दुर्वा या पुष्प डुबो-डुबोकर गायत्री मंत्र पढ़ते हुए रोगी पर उस जप का मार्जन करें, यज्ञ की भस्म रोगी के मस्तक, हृदय, कण्ठ, पेट, नाभि तथा दोनों भुजाओं से लगाएँ। इन सरल प्रयोगों को अनेक बार प्रयोग करके देखा गया है।

वस्तुत: अग्निहोत्र से धुआँ नहीं, ऊर्जा का प्रसारण होता है। ऊर्जा युक्त वायु हल्की होती है और हल्की वायु ऊपर को उठती है और नासिका द्वारा ग्रहण की जाती है। ऊर्जा में बढ़ा हुआ तापमान होता है वह त्वचा से स्पर्श करके रोम कूप खोलता है। स्वेद निकलता है और उस स्वेद के साथ ही रक्त तथा मांसपेशियों में जमे हुए रोग, वायरस, विजातीय तत्वों का निष्कासन होता है। इससे चर्म रोग मिटते हैं और बालों तथा त्वचा की जड़ों में जो अदृश्य कृमिकीटक होते हैं, वे समाप्त होते हैं, खाज, दाद, छाजन आदि भी ठीक हो जाते हैं। अग्निहोत्र ऊर्जा के साथ जुड़ी हुई उपयोगी शक्ति से रक्त में रोगनाशक शक्ति बढ़ती है। इसे जीवनी शक्ति का अभिवर्धन भी कह सकते हैं। इस आधार पर उस मूल कारण की समाप्ति होती है, जिससे भीतरी-बाहरी अंगों में शिथिलता छाई रहती है। आलस्य, भय, घबराहट, धड़कन, अपच जैसे रोगों में अग्निहोत्र लाभदायक होता है।

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रोंगो की हवन सामग्री

भारत में लोक परम्परा से संबंधित यह ज्ञान वैदिक समय (१०००-५००० बी.सी.) से देखा जा सकता है। हमारे वैदिक ग्रंथ, ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में ऐसे कई उदाहरण सामने आते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि वैदिक समय में लोगों द्वारा वनस्पतियों का उपयोग चिकित्सा के रूप में हुआ करता था। ऋग्वेद में ६७, यजुर्वेद में ८१, आयुर्वेद में ७००, अथर्ववेद में २९०, सिद्ध पद्धति में ६०० तथा यूनानी पद्धति में ७०० औषधीय प्रजातियों का वर्णन मिलता है। चरक द्वारा ४३१ प्रजातियों का वर्णन तथा सुश्रुत द्वारा ३९५ प्रजातियों का वर्णन किया गया है।

मुनक्का से नजला, खाँसी को लाभ, सिर की थकान दूर होतीहै। शहद से नेत्र ज्योति बढ़ती है तथा कण्ठ शुद्ध होता है। घृत से बुद्धि तेजी होती है। नीम के सूखे पत्तों गिलोय व चिरायता से रक्तदाााव बन्द होता है। लाल चंदन से खाँसी भागती है। शंख वृक्ष के पुष्पों से हवन करने से कुष्ठ रोग चला जाता है। अपामार्ग बीजों से हवन करने पर मिर्गी (हिस्टिरिया) रोग शान्त होता है। तुलसी मलेरिया रोग को दूर करती है। श्वेत चन्दन का तेल सुजाक तथा आतशक रोगों का विष हरण करता है।

गूगल के गन्ध से मनुष्य को आक्रोश नहीं घेरता और रोग पीड़ित नहीं करते।

अपामार्ग, वूठ, पिप्पली, पृष्ठपर्णी, लाक्षा, शृंगी, पीपल, दूब,सोम, जौ की आहुतियाँ देने से भी अनेक रोग नष्ट होते हैं। अपामार्ग तो अनुवांशिक रोगों को भी नष्ट करता है |

भाव प्रकाश और अन्य आयुर्वेद ग्रंथों में यज्ञोपचार में प्रयुक्त होने वाली औषधियों की नामावली इस प्रकार है – मंडूपर्णी, ब्राह्मी, इन्द्रायण की जड़, सतावरी, असगन्ध, विधारा, शालपर्णी, मकोय, अडूसा, गुलाब के पूल, तगर, राशना, वंशलोचन, क्षीरकॉलोनी, जटामासी, पण्डरी, गोखरू, तालमखाना, बादाम, मनुक्का, जायफल, बड़ी इलायची, बड़ी हरड़, आँवला, छोटी पीपल, जीवन्ती, पुनर्नवा, नगेन्द्रवामड़ी, चीड़का बुरादा, गिलोय, चन्दन, कपूर, केसर, अगर, गूगल, पानड़ी, मोथा, चीता, पित्तपापड़ा। ये सब औषधियाँ समभाग, इनका दसवाँ भाग शक्कर तथा आठवाँ भाग शहद डालकर गोघृत में लड्डू समान बनाकर हवन में प्रयुक्त की जाती है।

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यज्ञ से वर्षा एवं कृषि वनस्पतियां

जर्मनी में वैज्ञानिकों द्वारा किए प्रयोगों से भी अब यह सिद्ध होगया है कि रोग कीटाणुओं को मारने की जितनी शक्ति इस ऊर्जा में है उतनी सरल, व्यापक और सस्ती पद्धति अभी तक नहीं खोजी जा सकी है। यज्ञ को प्राचीन काल में शारीरिक व्याधियों और मानसिक व्याधियों के शमन में सफलतापूर्वक प्रयुक्त किया जाता रहा है। आज अर्ध विक्षिप्तता-सनक, बुरी आदतें, अपराधी प्रवृत्तियाँ, उच्छृंखलता, आवेशग्रस्तता, अचिन्त्य चिन्तन, दुर्भावना जैसी मानसिक व्याधियाँ मनुष्य को कहीं अधिक दु:ख दे रही हैं और विपत्ति का कारण बन रही हैं। इसका निवारण यज्ञोपचार का सुव्यवस्थित रूप बन जाने पर भली प्रकार हो सकता है। वर्तमान यज्ञ प्रक्रिया जिस रूप में चल रही है वह भी किसी न किसी रूप में शारीरिक और मानसिक व्याधियों के समाधान में बहुत सहायक है। शारीरिक द्रष्टि से स्वस्थ तो कई व्यक्ति मिल सकते हैं परन्तु मानसिक द्रष्टि से जिन्हें संतुलित, विचारशील, सज्जन, शालीन कहा जा सके, कम ही मिलेंगे।

अन्तरिक्ष में जलीय गर्भ को धारण पोषण पुष्ट और प्रसव कराने में घृत सर्वाधिक समर्थ है। घृत के अतिरिक्त दूध, दही, आदि द्रव पदार्थ आद्र्र द्रव्य, स्नेहयुक्त हविद्रव्य, अन्नादि, वनस्पति इनका धूम मेघ निर्माण में तथा वर्षा कराने में परम सहायक हैं, यदि घृत के साथ इनका प्रयोग हो। घृत गौ का ही सर्वाधिक उपयोगी है। यदि एक सहस्र नारियल के गोलों में घृत, शक्कर, शहद, मेवा, खीर, मोहनभोग (हलुआ), मावा, तिल, जौ आदि पदार्थों को भरकर उनको यज्ञवेदी में अग्नि को अपनी वृष्टि की कामना के साथ समर्पित किया जावे और उच्च स्वर से ऊँ, स्वाहा-की सम्मिलित रूप से बार-बार ध्वनि की जावे तो वर्षा ऋतु में मेघों के होने पर उसी दिन शीघ्र ही वर्षा होगी। मेघ नहीं होंगे तो शीघ्र उत्पन्न होंगे और वर्षा भी उसी दिन १-२ दिन में होगी।

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धूप, यज्ञ, हवन, कंडा : रिसर्च, कंसल्टटेंसी

हम धूप, यज्ञ, हवन सामग्री पर कार्य करते है।

धूप यज्ञ हवन मैं हमें क्या दिखता है। अनुभव क्या होता है।

किसी उल्टे पिरामिड आकार के पात्र में या हवन कुण्ड में नीचे कुछ लकड़ियां जलाई जाती है। और उनके उपर वनस्पतियो को अर्पित किया जाता है। इससे बनने वाले वातावरण को हम अनुभव करते है। इससे हमारे आस पास का वातावरण शुद्ध हो जाता है।

यज्ञ हवन करते समय नीचे जलाया क्या जाए और उपर से डाला क्या जाए। इसी विषय पर हमारे द्वारा कार्य किया जाता है।

इस क्रिया से स्वास्थ प्रद, सुगंदित, प्रगतिशील तॆज युक्त वातावरण उत्तपन्न हो हमारे आस पास के वायरस किटाणु फंगस नस्ट हो और हमारा इम्यून सिस्टम स्ट्रांग हो इस प्रकार की व्यवस्था धूप, यज्ञ, हवन से ही उचित है। इसमें उपयोग आने वाली सामग्री क्या हो, क्यों हो और उसे उपयोग कैसे किया जाये इसी विषय पर हमारे द्वारा काम किया जाता है।
उपयोग का उचित समय संधिकाल होता है , उस समय वायरस कीटाणु ज्यादा उग्र होते है , सुबह 6 से 7 एवं शाम 5 से 7 उचित संधि समय होता है।