ऋग्वैदिक काल में प्रतिदिन संध्याकाल (प्रात:–सायं) में धूप यज्ञ किया जाता था। यह धारणा तभी से आज तक बनी हुई है कि धूप यज्ञ से उठने वाला धुआँ वातावरण को रोगाणुरहित और शुद्ध बनाता है। २००० ई. पू. के समय के वैदिक साहित्य में दालचीनी, अदरक, मूर, चंदन, लौंग जैसे ७०० से भी अधिक तत्वों का वर्णन किया गया है। प्रमाण सिद्ध करते हैं कि भारतवर्ष में उस समय के लोग जड़ी-बूटियों के सुवासित पदार्थों का प्रयोग करते थे।
विभिन्न देशों में अनेक बहुदेशीय कंपनी अपने कर्मचारियों की क्षमताओं में इजाफा करने के लिए चंदन, चमेली आदि की खुशबुओं का प्रयोग अपने कार्यालय व कारखानों में कराती हैं। ऐसा होने से कर्मचारी मानसिक उद्वेग या तनाव का शिकार नहीं होते और आपसी तालमेल बैठाकर अच्छा कार्य करते हैं। उनकी कार्यक्षमता का विकास होता है।
सुगन्ध से मस्तिस्क के ज्ञान तन्तु में एक प्रकार की गति उत्पन्न होती है। इससे मन हृदय पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। परिणामत: रक्त संचार में तेजी आ जाती है, ऑक्सीजन ज्यादा मिलती है इसीलिए इसका प्रयोग जीव में एक प्रकार का आनन्द उल्लास पैदा करता है।
सुगन्ध की अनुकूलता, प्रियता सभी पसंद करते हैं। इसके विपरीत दुर्गन्ध एवं प्रदूषण के परिणामों से सभी परिचित हैं। यही कारण है कि कमरों को सुगन्धित करने के लिए अगरबत्तियाँ, धूपबत्तियाँ, लोबान, धूप आदि जलाए जाते हैं।
वनौषधि यजन प्रक्रिया धूम्रों को व्यापक बनाकर, सुगंध पैलाकर समूह चिकित्सा की विद्या है, जो पूर्णत: विज्ञान सम्मत है। गंध प्रभाव के माध्यम से मस्तिस्क के प्रसुप्त केन्द्रों का उद्दीपन, अन्दर के हारमोन रस द्रव्यों का रक्त में आ मिलना तथा श्वास द्वारा प्रमुख कार्यकारी औषध घटकों का उन ऊतकों तक पहुँच पाना, ये ही जीवनी-शक्ति निर्धारण अथवा व्याधि निवारण हेतु उत्तरदायी है।
सम्पर्क में आने वालों की शारीरिक-मानसिक व्याधियों का भी निराकरण हो सके, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही विषय निर्धारित किए जाते हैं। यज्ञ सामग्री में रहने वालों पदार्थों का चयन करते समय उनकी सूक्ष्म-शक्ति के अतिरिक्त यह भी देखा जाता है कि उस सामग्री में उपयोगी सुगंधित पदार्थ का तत्व है या नहीं। यह सुगंधित तत्व भी यजनकर्ताओं के शरीर में प्रवेश करते हैं और उन्हें आरोग्य प्रदान करते हैं।
भारत में अति प्राचीन काल से विभिन्न देवी-देवताओं की आरती करने का विधान है। आरती के समय गाय के घी का दिया एवम कपूर भी जलाया जाता है तथा धूप की विभिन्न भक्तजनों को आरती दी जाती है। इन सबके पीछे मात्र यह उद्देश्य था कि किसी भी स्थान विशेष पर कुछ समय तक कपूर का दहन हो तथा साधक का परिवार लाभाान्वत हो। दरअसल कपूर के दहन से उत्पन्न वाष्प में वातावरण को शुद्ध करने की जबरदस्त क्षमता होती है। इसकी वाष्प में जीवाणुओं, विषाणुओं तथा अतिसूक्ष्म से सूक्ष्मतर जीवों का शमन करने की शक्ति होती है। इन सूक्ष्म जीवों को प्राचीन ग्रंथों में ही भूत, पिशाच, राक्षस आदि की संज्ञा दी गई है। अत: कपूर वा अन्य अनेक वनस्पतियां को घर में नित्य जलाना परम हितकर है। इसको नित्य जलाने से ऋणावेशित आयन्स घर में बढ़ते हैं परिणामस्वरूप घर का वातावरण शुद्ध रहता है, बीमारियाँ उस घर में आसानी से आक्रमण नहीं करती हैं। दु:स्वप्न नहीं आते। देवदोष एवं पितृदोषों का नाश होता है।