yagya 1

यज्ञ कर्तव्य

यह ॠग्वेद का सुभाषित है कि ‘सब बलवान और उत्साही मनुष्यों का यह कर्तव्य है कि वे अपनी और समाज की उन्नति और कल्याण के लिए यज्ञकर्म किया करें’| वेदों में परम पिता परमात्मा को ‘आनंदस्वरूप’ कहा है क्योंकि परमात्मा आनंद का स्त्रोत है और जो उनके सान्निध्य में रहता है वह भी आनंदमय हो जाता है| परमात्मा को यज्ञस्वरूप भी कहते है क्योंकि उसके समस्त कार्य यज्ञमय (परोपकारार्थ) होते हैं अर्थात् सब जीवों के हितार्थ होते हैं| प्राचीन काल से ‘यज्ञ’ भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक अभिन्न अंग/चिन्ह् रहा है इसलिये भारतीय संस्कृति में हर शुभ कार्य करने से पूर्व ‘यज्ञकर्म’ करने का विधान है| प्रत्येक परोपकारी कार्य को ‘यज्ञ’ कहते है| यज्ञ (अग्निहोत्र/हवन) एक प्रकार का कर्मकांड है, सर्वश्रेष्ठ गुणों का प्रतीक है, जिससे याज्ञिक (यज्ञकर्ता) अनेक बातें सीख सकता है|

अग्नि प्रकाश का प्रतीक है, अग्नि से प्रकाश मिलता है तथा उसकी ज्वालाएँ ऊपर की ओर जाती है अतः वे हमें सिखाती है कि मनुष्य को अपने जीवन में सदा प्रकाश अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए जिससे वह सदैव ऊपर अर्थात् प्रगति कके मार्ग पर अग्रसर रहे! घी स्नेह और मित्रता का प्रतीक है| सामग्री संगठन का प्रतीक है और समिधा समर्पण का प्रतीक है| ‘स्वाहा’ यज्ञ का आत्मा है अर्थात् ‘स्वाहा’ के बिना यज्ञ करना निरर्थक है! ‘इदं न मम’ यज्ञ के प्राण हैं| यदि आप निष्काम कर्म की भावना से करते है तो वह सब यज्ञकर्म कहलाता है! अगर आप किसी प्यासे प्राणी (मनुष्य, पशु-पक्षी इत्यादि) को जल पिलाते हैं, भूखे व्यक्ति या पशु को भोजन खिलाते हैं, किसी दुःखी व्यक्ति के दुःख को कम करने का प्रयास करते हैं, किसी जरूरतमंद गरीब रोगी को औषधि दिलाते हैं, कमजोर वर्ग के बच्चे को पढ़ाते है या उसकी पढ़ाई के लिये प्रबंध करते हैं, रोते बच्चे को हँसाते हैं इत्यादि अनेक कार्य हैं ये सभी यज्ञ कर्म कहाते है! यदि आपकी कमाई का दान सुपात्र को जाता है, अस्पतालों में रोगियों के इलाज के लिए जाता है, अनाथालयों में जाता है, वृद्धाश्रमों में जाता है, वैदिक गुरुकुलों में जाता है इत्यादि और भी अनेक संस्थाओं में जाता है तो ये सब यज्ञकर्म हैं| इससे आपके धन का सदुपयोग होता है! यही निष्काम कर्म है और यही यज्ञकर्म है| यज्ञ करने से ईश्वर के प्रति ‘श्रद्धा और प्रेम’ उजागर होता है, मन में शांति और एकाग्रता आती है, आपसी मित्रता बढ़ती है, प्रदूषण की निवृत्ति होती है|

यज्ञकर्म सूर्य के प्रकाश के होते ही करना चाहिये क्योंकि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लाभकारी होता है| विवाह संस्कार के निमित्त बनी यज्ञशाला को ‘कल्याणमण्डप’ कहते है| बृहद् यज्ञो में ब्रह्मा (यज्ञ निरीक्षक), अध्वर्यु (यज्ञ मण्डप की व्यवस्था करने वाला एवं ॠग्वेद के मंत्रो का सस्वर पाठ करने वाला) के आसन निर्धारित होते है| साधारण साप्ताहिक यज्ञ में ब्रह्मा नहीं होता मात्र पुरोहित और यजमान होते है| होता या यजमान का आसन पश्चिम में और मुख पूर्व दिशा में निर्धारित होता है| यज्ञ के ब्रह्मा तथा पुरोहित का आसन दक्षिण में और मुख उत्तर दिशा की ओर सुरक्षित होता है| अध्वर्यु का आसन उत्तर में व मुख दक्षिण दिशा में होता है| उद्गाता का आसन पूर्व में और मुख पश्चिम दिशा में सुरक्षित होता है| हवनकुण्ड यज्ञशाला के मध्य में रखा जाता है| यज्ञ का आयोजन करने वाले यजमान को इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि ब्रह्मा का आसन उपस्थित यजमान तथा दर्शकों से थोड़ा सा ऊँचा (याग्निक के स्तर में थोड़ा सा नीचे) हो ताकि वह यज्ञकर्म की सम्पूर्ण गतिविधियों का अच्छी तरह से निरीक्षण कर सके|

यज्ञ में कोई त्रुटी न हो, इसका पूरा उत्तरदायित्व ब्रह्मा पर होता है| ब्रह्मा/यजमान का आसन यज्ञाग्नि के स्तर से ऊँचा होना चाहिये| ‘यज्ञोपवीत’ यज्ञ करने का अधिकार प्रदान करता है, शुभकर्म करने की प्रेरणा देता है और अशुभ कर्मो से बचाता है| यज्ञोपवीत वैदिक संस्कृति और सभ्यता का एक प्रतीक है| वैदिक धर्मानुसार ‘सन्यासाश्रम में प्रवेश करने वाले इच्छुक व्यक्तियों का धारण किया हुआ यज्ञोपवीत उतार दिया जाता है क्योंकि सन्यासियों का पूरा जीवन ‘यज्ञमय’ (अग्निरूप परोपकारार्थ) होता है| सन्ध्या (परमात्मा का ध्यान) करने का अधिकार सब मनुष्यों को समान रूप से प्राप्त है| यज्ञोंपयोगी सावधानियाँ-यज्ञ (अग्निहोत्र/हवन) के प्रयोग में आने वाले पात्र (बर्तन) स्वर्ण, चाँदी, ताम्बे के धातु के या काष्ठ के होने चाहिये (संस्करविधि)|

सामान्यतः इन पात्रों की आवश्यकता पड़ती है-एक दीपक , घी रखने के लिये एक चौड़ा पात्र (आज्यस्थाली) तथा एक लम्बी स्रुवा (लम्बी पकड़ वाला चम्मच), एक कलश (प्रोक्षणीपात्र) जिससे जल सेचन करते हैं| सामग्री के चार और स्थालीपाक आदि रखने के लिए (शाकल्यपात्र) पात्र, चार आचमन पात्रों के साथ में चार छोटे चम्मच, एक पात्र में उबले हुए थोड़ी मात्रा में नमक-रहित या मीठे चावल, एक नारियल तथा आम के पत्तों से ढका जल से भरा एक कलश (अग्निपुराण) जो जल प्रसेचन के काम आता है| अग्नि प्रदीप्त करने करने के लिये आठ अंगुल लम्बी (लगभग 7”) तथा उँगलियों जितनी पतली तीन समिधाएँ (चन्दन की समिधाएँ) चन्दन की समिधाएँ हों तो बेहतर)| उपर्युक्त के अतिरिक्त चार हाथ पोंछने के छोटे सूती वस्त्र या Napkins या Tissue Papers और यजमानों एवं अतिथियों के लिये यज्ञोपवीत उपलब्ध होने चाहियें|

Leave a Comment